Atmadharma magazine - Ank 097
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः २२ः आत्मधर्मः ९७
परमात्मतत्त्वनी भावना, परमात्मतत्त्वनुं ध्यान वगेरे शब्दोथी कहेवाय छे.)
शास्त्रकार आचार्यभगवाने अने टीकाकार मुनिवरे आ परमागमना पाने पाने जे अनुभवसिद्ध परम
सत्य पोकार्युं छे तेनो सार आ प्रमाणे छेः हे जगतना जीवो! तमारा सुखनो एकमात्र उपाय परमात्मतत्त्वनो
आश्रय छे. सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धि सुधीनी सर्व भूमिकाओ तेमां समाय छे. परमात्मतत्त्वनो जघन्य आश्रय
ते सम्यग्दर्शन छे; ते आश्रय मध्यम कोटिनी उग्रता धारण करतां जीवने देशचारित्र, सकलचारित्र वगेरे दशाओ
प्रगट थाय छे अने पूर्ण आश्रय थतां केवळज्ञान अने सिद्धत्व पामी जीव सर्वथा कृतार्थ थाय छे. आ रीते
परमात्मतत्त्वनो आश्रय ज सम्यग्दर्शन छे, ते ज सम्यग्ज्ञान छे, ते ज सम्यक्चारित्र छे, ते ज सत्यार्थ प्रतिक्रमण,
प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित, सामायिक, भक्ति, आवश्यक, समिति, गुप्ति, संयम, तप, संवर, निर्जरा,
धर्म–शुक्लध्यान वगेरे बधुंय छे. एवो एक पण मोक्षना कारणरूप भाव नथी जे परमात्मतत्त्वना आश्रयथी
अन्य होय. परमात्मतत्त्वना आश्रयथी अन्य एवा भावोने (–व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान वगेरे
शुभविकल्परूप भावोने–) मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे ते तो केवळ उपचारथी कहेवामां आवे छे.
परमात्मतत्त्वना मध्यम कोटिना अपरिपक्व आश्रय वखते ते अपरिपक्वताने लीधे साथे साथे जे अशुद्धिरूप
अंश विद्यमान होय छे ते अशुद्धिरूप अंश ज व्यवहारप्रतिक्रमणादि अनेक अनेक शुभविकल्पात्मक भावोरूपे
देखाव दे छे. ते अशुद्धि–अंश खरेखर मोक्षमार्ग केम होई शके? ते तो खरेखर मोक्षमार्गथी विरुद्धभाव ज छे,
बंधभाव ज छे–एम तमे समजो.
वळी, द्रव्यलिंगी मुनिने जे प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान वगेरे शुभ भावो होय छे ते भावो तो दरेक जीव
अनंत वार करी चूकयो छे परंतु ते भावो तेने केवळ परिभ्रमणनुं ज कारण थया छे कारण के परमात्मतत्त्वना
आश्रय विना आत्मानुं स्वभावपरिणमन अंशे पण नहि थतुं होवाथी तेने मोक्षमार्गनी प्राप्ति अंशमात्र पण
होती नथी. सर्व जिनेन्द्रोना दिव्यध्वनिनो संक्षेप अने अमारा स्वसंवेदननो सार ए छे के भयंकर संसाररोगनुं
एकमात्र औषध परमात्मतत्त्वनो आश्रय ज छे. ज्यां सुधी जीवनी द्रष्टि धु्रव अचळ परमात्मतत्त्व उपर न
पडतां क्षणिक भावो उपर रहे छे त्यां सुधी अनंत उपाये पण तेना कृतक औपाधिक उछाळा–शुभाशुभ विकल्पो–
शमता नथी, परंतु ज्यां ते द्रष्टिने परमात्मतत्त्वरूप धु्रव आलंबन हाथ लागे छे त्यां ते ज क्षणे ते जीव (द्रष्टि–
अपेक्षाए) कृतकृत्यता अनुभवे छे, (द्रष्टि–अपेक्षाए) विधि–निषेध विलय पामे छे, अपूर्व समरसभावनुं वेदन
थाय छे, निजस्वभावभावरूप परिणमननो प्रारंभ थाय छे अने कृतक औपाधिक उछाळा क्रमेक्रमे विराम पामता
जाय छे. आ निरंजन निज परमात्मतत्त्वना आश्रयरूप मार्गे ज सर्वे मुमुक्षुओ भूतकाळे पंचमगतिने पाम्या छे,
वर्तमान काळे पामे छे अने भावी काळे पामशे. आ परमात्मतत्त्व सर्व तत्त्वोमां एक सार छे, त्रिकाळ–
निरावरण, नित्यानंद–एकस्वरूप छे, स्वभाव–अनंत–चतुष्टयथी सनाथ छे, सुखसागरनुं पूर छे, कलेशोदधिनो
किनारो छे, चारित्रनुं मूळ छे, मुक्तिनुं कारण छे. सर्व भूमिकाना साधकोने ते ज एक उपादेय छे. हे भव्य जीवो!
परमात्मतत्त्वनो आश्रय करी तमे शुद्ध रत्नत्रय प्रगट करो. एटलुं न करी शको तो सम्यग्दर्शन तो अवश्य
करो ज. ए दशा पण अभूतपूर्व अने अलौकिक छे.
–नियमसारना उपोद्घातमांथी.
*
दि. जैन तिथिदर्पण
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी प्रकाशित चालु सालना जैन तिथिदर्पण दरेक गामना मुमुक्षुमंडळ
उपर मोकली आपवामां आव्या छे; माटे जेमने जरूर होय तेमणे त्यांथी मेळवी लेवुं. अथवा ज्यां मुमुक्षुमंडळ न
होय तेमणे सोनगढथी मंगावी लेवुं.
ग्राहकोने–
आत्मधर्मना जे ग्राहकोए हजी सुधी लवाजम न मोकल्युं होय तेमने कारतक सुद पूनम सुधीमां मोकली
देवा विनंती छे. त्यारपछी कोईए लवाजम न मोकलवुं; केम के कारतक सुद पूनम पछी वी. पी. शरू थशे. जेओ
ग्राहक तरीके चालु रहेवा न मांगता होय तेओए अगाउथी जणावी देवा विनंती छे.