Atmadharma magazine - Ank 097
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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– विरला! –
विरलाः निश्रृण्वन्ति तत्त्वं विरलाः जानन्ति तत्त्वतः तत्त्वं।
विरलाः भावयन्ति तत्त्वं विरलानां धारणा भवति।। २७९।।
तत्त्वं कथ्यमानं निश्चलं भावेन गृहणाति यः हि।
तत् एव भावयति सदा सः अपि च तत्त्वं विजानाति।। २८०।।
जगतमां तत्त्वने विरला पुरुषो सांभळे छे; सांभळीने पण तत्त्वने यथार्थपणे विरला ज जाणे
छे; वळी जाणीने पण विरला ज तत्त्वनी भावना एटले के वारंवार अभ्यास करे छे; अने अभ्यास
करीने पण तत्त्वनी धारणा तो विरलाओने ज थाय छे. (भावार्थः–) तत्त्वनुं यथार्थ स्वरूप सांभळवुं–
जाणवुं–भाववुं अने धारवुं ते उत्तरोत्तर दुर्लभ छे. आ पंचमकाळमां तत्त्वने यथार्थ कहेवावाळा दुर्लभ
छे अने धारवावाळा पण दुर्लभ छे.
जे पुरुष, गुरुओ वडे कहेवामां आवेलुं जे तत्त्वनुं स्वरूप तेने निश्चलभावथी ग्रहण करे छे, तेम
ज अन्य भावना छोडीने तेने ज निरंतर भावे छे ते पुरुष तत्त्वने जाणे छे.
–स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा.
विरला जाणे तत्त्वने वळी सांभळे कोई,
विरला ध्यावे तत्त्वने विरला धारे कोई.
–योगसार. ६६
अहो! रत्नत्रय–महिमा!
(त्रिभुवनपूज्य सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय ते ज सिद्धांतनुं सर्वस्व छे अने ते ज
त्रणेकाळना मोक्षगामी जीवोने मुक्तिनुं कारण छे, ए वात ज्ञानार्णवमां श्री शुभचंद्राचार्य कहे छेः)
एतत्समयसर्वस्वं मुक्तेश्चेतन्निबन्धनम्।
हितमेतद्धि जीवानामेतदेवाग्रिमं पदम्।। २२।।
आ रत्नत्रय ज सिद्धांतनुं सर्वस्व छे तथा ते ज मुक्तिनुं कारण छे; वळी जीवोनुं हित ते ज छे
अने प्रधान पद ते ज छे.
ये याता यान्ति यास्यन्ति यमिनः पदमव्ययम्।
समाराध्यैव ते नूनं रत्नत्रयमखण्डितम्।। २३।।
जे संयमी मुनिओ पूर्वे मोक्ष गया छे, वर्तमानमां जाय छे ने भविष्यमां जशे तेओ खरेखर
आ अखंडितरत्नत्रयने सम्यक्प्रकारे आराधीने ज गया छे, जाय छे अने जशे.
साक्षादिदमनासाद्य जन्मकोटिशतैरपि।
द्रश्यते न हि केनापि मुक्तिश्रीमुखपंकजम्।। २४।।
आ सम्यक् रत्नत्रयने प्राप्त कर्या वगर करोडो–अबजो जन्म धारण करवा छतां पण कोई जीव
मोक्षलक्ष्मीना मुखकमळने साक्षात् देखी शकता नथी.
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