पछी आत्मानी अनंत शक्तिओमांथी ४७ शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे. तेमांथी अहीं
प्रथमविषय उपरनां प्रवचनो आपवामां आवे छे; ४७ शक्ति उपरनां प्रवचनो हवे पछी
आपवामां आवशे.)
के, ‘आत्मा ज्ञानमात्र छे’ एम कहेतां ज्ञानथी विरुद्ध एवा रागादिभावोनो तो निषेध थई जाय छे, पण
ज्ञाननी साथे रहेनारा श्रद्धा, सुख वगेरे गुणोनो कांई निषेध थतो नथी. ए रीते ज्ञान साथे बीजा अनंत धर्मो
पण आत्मामां भेगा ज होवाथी ज्ञानमात्र आत्माने अनेकांतपणुं छे, ते वात अहीं आचार्यदेव प्रश्न–उत्तरद्वारा
स्पष्ट करे छे.
छतां ‘ज्ञानमात्र आत्मा छे’ एम कहेवानुं शुं कारण छे? ‘आत्मा चैतन्यमूर्ति ज्ञानमात्र छे, रागादिथी
निराळो एकलो ज्ञायकभाव छे’ एम आखा समयसारमां ‘ज्ञानमात्र’ एवुं जोर आपीने कह्युं छे, तो
आत्माने ज्ञानमात्र कहेवाथी बीजा धर्मोनो निषेध तो नथी थई जतो ने? अनंत धर्मोवाळो होवा छतां
आत्माने ज्ञानमात्र कहेवानुं प्रयोजन शुं छे?–आ प्रमाणे शिष्यनो प्रश्न छे. आ प्रश्न पूछनारे एटलुं तो
लक्षमां लीधुं छे के आचार्यदेव आत्माने परथी अने विकारथी तो जुदो ज बतावे छे; आत्मा ज्ञानमात्र
छे–एम बतावे छे. एटलुं लक्षमां लईने पूछे छे के प्रभो! अनंतधर्मवाळा आत्माने ज्ञान मात्र केम
कह्यो?
ज्ञानलक्षण वडे आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे.
नहि पण अंतर्मुख थईने आत्माने जे ज्ञान जाणे ते ज्ञान आत्मानुं लक्षण छे. जे ज्ञान शुद्ध आत्माने न जाणे
अने रागमां ज एकाकार थई जाय तेने खरेखर ज्ञान ज कहेतां नथी, केमके तेणे आत्मानी प्रसिद्धि न करी पण
रागनी प्रसिद्धि करी. ज्ञाननुं कार्य आत्मवस्तुने प्रसिद्ध करवानुं छे, पण ते व्यवहारने–रागने के परने प्रसिद्ध
करतुं नथी. ‘राग ते हुं नहि, शुद्ध आत्मा ते हुं’ एम ज्ञान जाहेर करे छे पण ‘राग ते हुं’ एम ते जाहेर नथी
करतुं. आ रीते आत्माने प्रसिद्ध करवा माटे तेने ‘ज्ञानमात्र’ कहेवामां आव्यो छे. ‘ज्ञानमात्र’ कहीने एकलो
ज्ञानगुण नथी बताववो पण आखो आत्मा बताववो छे.