Atmadharma magazine - Ank 097
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४७८ः पः
ज अप्रसिद्ध छे तो पछी लक्ष्यनी प्रसिद्धि कयांथी थाय? लक्षण तो तेने कहेवाय के लक्ष्य साथे त्रिकाळ रहे अने
लक्ष्यने ओळखावे. शरीर के पुण्य ते कांई आत्मानुं लक्षण नथी, आत्मानुं लक्षण तो ज्ञान छे.
आत्मा तो ज्ञानस्वरूपी छे, रागादि खरेखर आत्मानुं स्वरूप नथी. आवा ज्ञानलक्षणनी प्रसिद्धि विना
अज्ञानीने लक्ष्यनी प्रसिद्धि थती नथी. जेने ज्ञानस्वरूप लक्षणनी प्रसिद्धि थाय तेने ज लक्ष्य एवा आत्मानी
खबर पडे छे. माटे लक्ष्य–लक्षणनो भेद पाडीने अज्ञानीने ज्ञानलक्षणद्वारा आत्मा ओळखाववामां आवे छे.
भाई! ज्ञान ते ज तारुं लक्षण छे, आत्मा ज्ञानस्वरूप छे; ज्ञान सिवायना रागादि समस्त भावोथी तारा
आत्माने भिन्न समज, ज्ञानने अंतर्मुख करीने आत्मस्वभाव साथे एकमेक कर तो तने आत्मानी प्रसिद्धि एटले
के अनुभव थाय.–आ रीते लक्षण वडे लक्ष्यने ग्रहण करवा माटे उपदेश छे.
जुओ, आ तो हवे समयसारनुं परिशिष्ट छे, सूक्ष्म अंतरनी वात छे. शरीरादि बाह्यक्रिया के दया
वगेरेना स्थूळ रागरूप व्यवहारने काढी नांख्यो, अहीं मात्र लक्ष्य–लक्षणना भेदरूप सूक्ष्म व्यवहार छे. आ
लक्ष्य–लक्षणना भेद पण अभेद आत्मानुं लक्ष कराववा माटे ज छे. ‘ज्ञानमात्र आत्मा छे’–एम कहेतां पण
लक्षण–लक्ष्यनो भेद पडे छे, पण समजनार पोते जो भेदनुं लक्ष छोडीने अभेद आत्माने लक्षमां लईने समजी
जाय तो लक्ष्य–लक्षणना भेदने व्यवहार गणाय. अभेद आत्माने न समजे तो एकला भेदने व्यवहार न
कहेवाय. तेम ज अभेद समजतां वच्चे लक्षण–लक्ष्यना भेद आवे छे तेने जो सर्वथा न माने तो लक्षणना
स्वीकार वगर लक्ष्यने पण ते पकडी शकशे नहि.
अहीं ज्ञान लक्षणवडे आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे एम बतावीने आचार्यदेवे एकांत व्यवहाराभासी के
एकांत निश्चयाभासी ए बंनेनो निषेध कर्यो छे.
व्यवहाराभासी अज्ञानी एम कहे छे के ‘एकलुं ज्ञान–ज्ञान शुं करो छो? अमे जे पुण्यनी अने देहनी
क्रिया करीए छीए ते ज करवा दो ने! ते साधन करतां करतां कयारेक आत्मा ओळखाई जशे!’ अहीं ‘ज्ञान
लक्षण वडे आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे’ एम कहीने ते व्यवहाराभासने उडाडयो. अरे मूढ! देहनी क्रिया के पुण्यनी
क्रिया ते आत्माने ओळखवानुं साधन नथी पण ज्ञानलक्षण वडे ज आत्मा ओळखाय छे, एम तुं जाण.
वळी, निश्चयाभासी अज्ञानी एम कहे छे के “ज्ञान ते साधन अने आत्मा साध्य एवा भेद शा माटे
पाडो छो? सीधो अभेद आत्मा ज कहो ने? लक्षणद्वारा लक्ष्यने बतावो छो तेने बदले सीधुं लक्ष्य ज बतावी दो
ने!” जे लक्षणने न जाणे ते लक्ष्यने पण जाणतो नथी, लक्षणने ओळखवाथी ज लक्ष्यने ओळखी शकाय छे’–
एम कहीने अहीं ते निश्चयाभासीनो पण निषेध कर्यो छे. जेणे आत्माने कदी जाण्यो नथी तेने मात्र ‘आत्मा,
आत्मा’ एटलुं कहेवाथी आत्मा लक्षमां आवतो नथी, एटले तेने पहेलां आत्मानुं लक्षण ओळखाववुं पडे छे के
जो भाई! आ शरीर तो कांई जाणतुं नथी ने अंदर जे रागनी लागणीओ थाय छे तेनामां पण जाणवानुं
सामर्थ्य नथी. आ बधाने जे जाणे छे ते तो ज्ञान छे, ते ज्ञान देहथी अने रागथी जुदुं छे ने तारा आत्मा साथे
एकमेक छे; एवुं ज्ञान ते आत्मा छे.–आ प्रमाणे ज्ञानलक्षण वडे आत्माने ओळखाववामां आवे छे. अभेद
आत्मामां ढळतां वच्चे एटलो भेद आव्या विना रहेतो नथी. छतां, ‘ज्ञान ते आत्मा’ एवो जे लक्ष्यलक्षणनो
भेद छे ते कांई रागने प्रसिद्ध करवा माटे नथी पण आत्माने ज प्रसिद्ध करवा माटे छे. ज्ञानलक्षणनुं कार्य
आत्माने प्रसिद्ध करवानुं छे, पण ते रागने प्रसिद्ध नथी करतुं एटले के ‘हुं राग छुं’ एम ज्ञानलक्षण नथी
बतावतुं पण ‘हुं आत्मा छुं’ एम ज्ञानलक्षण बतावे छे. पहेलां लक्ष्य–लक्षणना भेदनो विकल्प उठतो होवा
छतां ते विकल्प तरफ ज्ञाननुं जोर नथी पण अभेद आत्माने लक्षमां लेवा तरफ ज ज्ञाननुं जोर छे, अभेद
आत्माने लक्षमां लेतां ते भेदनो विकल्प पण तूटी जशे, ने एकला लक्ष्यरूप आत्मानो अनुभव रही जशे;– आ
रीते लक्षण वडे लक्ष्यनी प्रसिद्धि थाय छे.
कोई एम कहे के ‘अमारे तो एकला लक्ष्यने ज ओळखवुं छे, लक्षणने नथी ओळखवुं. एकला आत्माने
अमारे जाणवो छे, पण तेनामां ज्ञानादि अनंतगुणो छे ने तेनी निर्मळपर्यायो प्रगटे छे–एवुं कांई अमारे नथी
जाणवुं, केम के ते जाणवामां तो विकल्पो थाय छे.’–तो