Atmadharma magazine - Ank 098
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः ३४ः आत्मधर्मः ९८
एकेक गुणनी अनंती पर्यायो छे, तेमां एकेक पर्याय पोतापणे छे ने आगळ–पाछळनी बीजी अनंत
पर्यायोपणे ते नथी;–एम अनंत पर्यायोमां दरेकनी अनंती सप्तभंगी समजवी.
एकेक पर्यायमां अनंत अविभागप्रतिच्छेदअंशो छे; तेमांनो दरेक अंश पोतापणे छे ने बीजा अनंत
अंशोपणे ते नथी;–एम एकेक अविभागप्रतिच्छेदअंशमां पण अनंत सप्तभंगी उतरे छे.
वळी द्रव्य–गुण–पर्यायमां परस्पर अस्ति–नास्तिरूप सप्तभंगी उतरे छे; ते आ प्रमाणे–
द्रव्य द्रव्यपणे छे, ने एक गुणपणे के पर्यायपणे ते नथी;
एक गुण गुणपणे छे ने आखा द्रव्यपणे के एक पर्यायपणे ते नथी;
एक पर्याय पर्यायपणे छे ने द्रव्य के गुणपणे ते नथी;–आम न होय तो द्रव्य, गुण, पर्याय त्रणेनुं भिन्न
भिन्न लक्षण ज सिद्ध न थई शके.
आ सप्तभंगीमां घणो विस्तार छे, चौद ब्रह्मांड तेमां आवी जाय छे; आ तो सूक्ष्म वीतरागी विज्ञान छे.
लोको बहारना संयोगथी पदार्थने जुए छे, ते जोवानी ज भूल छे,–‘देखतभूल’ छे. संयोगीद्रष्टि कहो के
देखतभूल कहो, ते ज संसारनुं मूळ छे. वस्तुमां संयोगनो तो अभाव छे–एम जो अस्ति–नास्तिथी वस्तुना
निरपेक्षस्वभावने जुए तो देखतभूल टळे.
जुओ, आ स्वतंत्रतानो ढंढेरो–
जगतमां अनंत द्रव्यो छे, तेमां एक द्रव्य बीजा द्रव्यपणे कदी थतुं नथी.
एकेक द्रव्यमां अनंतागुणो छे तेमां एक गुण कदी बीजा गुणपणे थतो नथी.
एकेक गुणनी अनंत पर्यायो, तेमां एक पर्याय बीजी पर्यायपणे कदी थती नथी. द्रव्यपणे द्रव्य सत्,
गुणपणे गुण सत् अने पर्यायपणे एकेक समयनी पर्याय पण सत्; कोई एकबीजापणे थई जतां नथी. अहो!
जुओ तो खरा, आ वस्तुदर्शन. केटली निरपेक्षता! आवुं निरपेक्ष स्वरूप समजे तो ज्ञानमां निरपेक्षता एटले के
के वीतरागता थई जाय, एकलो ज्ञाताभाव रही जाय, एनुं नाम धर्म.
द्रव्य सत्, गुण सत् ने पर्याय सत्, बधुंय पोतपोतापणे सत्रूप एम ने एम बिराजी रह्युं छे. ज्ञाताद्रष्टा
थईने तेने ज्ञेय करवुं ए ज तारुं काम छे. कयांय आघुंपाछुं के हेरफेर थाय तेवो वस्तुनो स्वभाव नथी तेमज
‘आम केम?’ एवो राग–द्वेषनो विकल्प करवो ते ज्ञाननुं पण स्वरूप नथी. आवा वस्तुस्वभावनी प्रतीत करतां
कर्तापणानो मोह टळीने ज्ञातापणुं प्रगटे तेनुं नाम धर्म छे.
*
दरेक आत्मामां अनंत धर्मो छे; ते आत्माने स्वानुभवथी श्रुतज्ञानप्रमाण जाणे छे. ते श्रुतज्ञानमां
अनंतनयो छे; एकेक नय आत्माना एकेक धर्मने जाणे छे. धर्म एटले द्रव्यनो भाग; अने नय एटले
श्रुतज्ञाननो भाग. अनंतधर्मात्मक आखी वस्तुने जाणे ते प्रमाणज्ञान छे, अने तेना एक धर्मने मुख्य करीने
जाणे ते नय छे. आ नयो साधकना श्रुतज्ञानमां ज होय छे. केवळीभगवानना आत्मामां अस्तित्व वगेरे अनंत
धर्मो छे पण तेमना ज्ञानमां अस्तित्वनय वगेरे कोई नय होता नथी, तेओ तो नयातीत थई गया छे. अहीं तो
नयद्वारा जेणे वस्तुस्वरूप साधवुं छे एवा साधकने ४७ नयोद्वारा आत्मानुं स्वरूप ओळखावे छे. सिद्ध परमात्मा
के एक परमाणु, ते दरेक द्रव्य अनंतधर्मात्मक छे; पण अहीं तो आत्माने ओळखाववानुं प्रयोजन होवाथी
आत्माना धर्मोनी वात छे. आत्मा वस्तु केवी छे ने ते केम जणाय तेनी आ वात चाले छे.
स्वचतुष्टयथी आत्मा अस्तिरूप छे ने परचतुष्टयथी आत्मा नास्तिरूप छे. जे अस्तिरूप छे ते ज
नास्तिरूप छे. कई रीते?–के स्वअपेक्षाए जे अस्तिरूप छे ते ज पर अपेक्षाए नास्तिरूप छे; परंतु जे अपेक्षाए
अस्तिरूप छे तेने ते ज अपेक्षाए नास्तिरूप नथी. एक ज वस्तुना बे धर्मो छे पण एक ज अपेक्षाए बंने धर्मो
नथी. जे अपेक्षाए अस्तित्व छे ते अपेक्षाए तो अस्तित्व ज छे. ते अपेक्षाए नास्तित्व नथी. जे आत्मा छे ते
ज अनात्मा छे.–कई रीते?–के स्वपणे जे आत्मा छे ते ज आत्मा पर स्वरूपनी अपेक्षाए नथी माटे ते अनात्मा
छे. आत्माने ‘अनात्मा’ कहेतां घणा मूंझाई जाय छे के अरे! आत्मा ते वळी अनात्मा होय? पण ‘आत्मा
परपणे नथी’–एम कहो के ‘परनी अपेक्षाए