स्वभावमां लक्ष करतां ज्ञानमात्रभावनुं जे परिणमन थयुं तेनी साथे आ जीवत्व वगेरे शक्तिओ तो
ऊछळे छे– शुद्धतापणे परिणमे छे, पण ते ज्ञानना परिणमननी साथे कांई रागादि भावो नथी ऊछळता,
तेमनो तो अभाव थतो जाय छे.–‘रागादिनो अभाव थाय छे’ ते पण व्यवहारथी छे; खरेखर तो
ज्ञानमात्र आत्मस्वभावमां रागादि छे ज नहि, तो पछी तेनो अभाव थवानुं पण कयां रह्युं? राग हतो
अने टळ्यो ए वात पर्याय अपेक्षाए छे, अहीं पर्याय उपर जोर नथी, अहीं तो स्वभावनी अस्ति उपर ज
जोर छे.
पहेलां पण आ शक्ति हती तो खरी, पण तेनुं भान न हतुं; जेम मेरुपर्वत नीचे सोनुं छे, पण ते शा कामनुं?
तेम आत्मामां केवळज्ञाननी शक्ति छे, जीवत्वशक्ति छे, पण भान वगर ते शा कामनी? अनंत शक्तिवाळा
आत्माने ओळखीने तेना आश्रये परिणमे तो बधी शक्तिओ निर्मळपणे ऊछळे, एटले के साधकदशा प्रगटीने
अल्पकाळे मुक्ति थाय.
चीज छे तेनुं पण तेने भान नथी. जेने स्वतंत्र आत्मानी यथार्थ श्रद्धा छे ते धर्मीनुं कोई काळे कोई संयोगमां
पण अहित न ज थाय. नित्य, अविनाशी आत्मामां जे जागृत छे तेने त्रणकाळ त्रणलोकमां विघ्न नथी. पोते
परथी भिन्न छे छतां परथी विघ्न माने तेने जुदा स्वतंत्र स्वभावनी श्रद्धा ज नथी. जगतनी मूर्खाई केटलीक
कहेवाय? अनेक प्रकारे कल्पना करी परथी लाभ–हानि माननार सदा आकुळ ज रहे छे...कोई कहे के आत्माने तो
जाण्यो, ज्ञान तो कर्युं, पण बंधनभाव टळ्यो के नहि तेम ज मिथ्यात्व टळ्युं के नहि तेनी खबर नथी.–तो तेणे
आत्माने जाण्यो ज नथी.
पचास हाथनो छे. छोकराए पोताना हाथे मापीने कह्युं के आ ताको तो पंचोतेर हाथनो छे! माटे तमारी वात
खोटी छे. त्यारे पिताए कह्युं–भाई, अमारा लेवडदेवडना काममां तारा हाथनुं माप न चाले.
प्रथम ते मार्गनो परिचय करो, रुचि वधारो, विशाळ बुद्धि, सरळता, मध्यस्थता अने जितेन्द्रियपणुं वगेरे गुणो
लावो. संतनी ओळखाण थये सत्नो आदर थाय, अने तो ज धर्मात्मानो उपकार समजी शकाय, तथा पोताना
गुणनुं बहुमान आवे अने वर्तमानमां ज अपूर्व शांति प्रगटे.