छे. आत्मा सूक्ष्म छे तो तेनी वात पण सूक्ष्म ज
होय. जीवे एक ‘स्व’ नी समजण विना बीजुं
बधुं अनंतवार कर्युं छे. आत्मानी परम सत्य वात
कोईक जग्याए ज सांभळवा मळे छे. कोई नोवेलो
वांचे छे, कोई धर्म सांभळवा जाय त्यां ओठां–
वार्ता संभळावे छे, बाह्यनी प्रवृत्ति बतावे छे; ए
रीते बाह्य क्रियाथी संतोष मनावी धर्मनुं स्वरूप
भाजी–मूळा जेवुं सोंघुं बनावी दीधुं छे.
आत्मस्वभावनी जे वात अनंतकाळमां न
समजाणी ते वात समजवा माटे तुलनात्मक बुद्धि
होवी जोईए. लौकिक वात अने लोकोत्तर धर्मनी
वात तद्न जुदी होय छे. झट न समजाय तेथी ना
न पाडशो. जे पोतानुं स्वरूप छे ते न समजाय
एवुं अघरुं होय ज नहि. रुचिथी अभ्यास करे तो
दरेक जीव पोतानुं आत्मस्वरूप समजी शके छे.
मात्र सत् समजवानो प्रेम जोईए. श्री आचार्यदेवे
तो समयसारनी शरूआतमां ज कह्युं छे के–हुं मारा
अने तमारा आत्मामां सिद्धभगवानपणुं स्थापीने
आ तत्त्व जणावुं छुं.
जणाय नहि. अने दीपकना प्रकाश वडे जोतां ते
चीजो जुदी जुदी जेम छे तेम जणाय छे; तेम
अज्ञानरूपी अंधारामां आत्मा अने परचीजो
एकमेक भासे छे पण आत्मानुं परथी जुदापणुं
भासतुं नथी. आत्माने परथी जुदो जाणवा माटे
प्रथम ज सम्यग्ज्ञानरूप प्रकाश जोईए. आ
(सम्यग्ज्ञान) पहेलामां पहेलो आत्मधर्मनो
एकडो छे.
मुद्रकः– चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, मोटा आंकडिया, (जिल्ला अमरेली) ता. २९–११–प१