Atmadharma magazine - Ank 098
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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भवभ्रमण केम न अटकयुं?
‘रागमात्र हुं नहि, शुभभाव पण आत्मस्वभावने
मददगार नथी’–एवी समजण विना मात्र पुण्यनी क्रिया करी,
ने तेथी अनंतवार नवमी ग्रैवेयक सुधी जे जीव गयो तेनी
श्रद्धा व्यवहारे तो बहु चोख्खी होय छे, केम के संपूर्ण
व्यवहारशुद्धि विना नवमी ग्रैवेयक सुधी जई शकाय नहीं. पण
अंतरमां ते जीवने परमार्थ श्रद्धान् न हतुं तेथी भवभ्रमण टळ्‌युं
नहि.
एकवार सत्य श्रद्धा करवाथी, भेदज्ञानज्योति वडे सर्व
परद्रव्य अने परभावथी छूटवुं थाय छे. एकवार स्वतंत्र
स्वसमयने माने तो संसार रहे नहि. सम्यग्ज्ञान शुं छे ते
अनंतकाळमां जीवे जाण्युं नथी, अने अज्ञानभावे धर्मना नामे
पाप घटाडी पुण्य बांध्युं पण तेनाथी धर्म थयो नहि ने
भवभ्रमण अटकयुं नहि.
नवमी ग्रैवेयके जनार अज्ञानी जीवने व्यवहारे श्रद्धा–
ज्ञान अने शुभप्रवृत्ति होय छे, बाह्यथी नग्न दिगंबर मुनिपणुं
होय छे, पंच महाव्रतनुं पालन सावधानीपूर्वक होय छे; पण
अंतरमां हुं चैतन्यमूर्ति आत्मा परथी निराळो छुं, पुण्य–
पापना विकल्पथी रहित छुं, कोई परनो मारे आश्रय छे ज
नहि,–एवी स्वावलंबी तत्त्वश्रद्धा नथी तेथी ते जीवनुं
भवभ्रमण टळतुं नथी.
–समयसार–प्रवचनो भा. १ पृ. ९१, ९३, १२३.
‘हीरानी रज!’
जे हीरा सराणे चडे ते तो मूल्यवान छे ज, पण तेनी
जे रज खरे तेना पण सेंकडो रूपिया ऊपजे; तेम वस्तुनुं
सत्यस्वरूप सांभळतां जे जीव वस्तुस्वरूपने पकडे छे तेनी तो
शी वात? ते तो अमूल्य हीरो पकडे छे, पण आवुं सत्यस्वरूप
सांभळतां जे शुभभाव थाय तेने कारणे पण ऊंचुं पुण्य बंधाय
छे.... आ अध्यात्म छठ्ठी गाथाना अंतरभावो जे समजे तेनो
मोक्षभाव पाछो न फरे, तेनी मुक्ति थया विना रहे नहि.
(समयसार–प्रवचन १ पृ. १प६)
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