ने तेथी अनंतवार नवमी ग्रैवेयक सुधी जे जीव गयो तेनी
श्रद्धा व्यवहारे तो बहु चोख्खी होय छे, केम के संपूर्ण
व्यवहारशुद्धि विना नवमी ग्रैवेयक सुधी जई शकाय नहीं. पण
अंतरमां ते जीवने परमार्थ श्रद्धान् न हतुं तेथी भवभ्रमण टळ्युं
नहि.
स्वसमयने माने तो संसार रहे नहि. सम्यग्ज्ञान शुं छे ते
अनंतकाळमां जीवे जाण्युं नथी, अने अज्ञानभावे धर्मना नामे
पाप घटाडी पुण्य बांध्युं पण तेनाथी धर्म थयो नहि ने
भवभ्रमण अटकयुं नहि.
होय छे, पंच महाव्रतनुं पालन सावधानीपूर्वक होय छे; पण
अंतरमां हुं चैतन्यमूर्ति आत्मा परथी निराळो छुं, पुण्य–
पापना विकल्पथी रहित छुं, कोई परनो मारे आश्रय छे ज
नहि,–एवी स्वावलंबी तत्त्वश्रद्धा नथी तेथी ते जीवनुं
भवभ्रमण टळतुं नथी.
सत्यस्वरूप सांभळतां जे जीव वस्तुस्वरूपने पकडे छे तेनी तो
शी वात? ते तो अमूल्य हीरो पकडे छे, पण आवुं सत्यस्वरूप
सांभळतां जे शुभभाव थाय तेने कारणे पण ऊंचुं पुण्य बंधाय
छे.... आ अध्यात्म छठ्ठी गाथाना अंतरभावो जे समजे तेनो
मोक्षभाव पाछो न फरे, तेनी मुक्ति थया विना रहे नहि.