Atmadharma magazine - Ank 098
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः २८ः आत्मधर्मः ९८
सत् छे.–बस! छे तेम जाणी लेवानुं छे, तेमां कारण–कार्यना भेदनो विकल्प ज कयां छे?
जुओ! सम्यग्दर्शननी निर्मळ पर्याय अनादिकाळमां न हती ने अपूर्वदशा प्रगटी. त्यां तेनुं कारण कोने
कहेशो? जो त्रिकाळी द्रव्य–गुणने तेनुं कारण कहो तो, ते तो सम्यग्दर्शन प्रगटया पहेलां पण हतां! पूर्व पर्यायने
कारण कहो तो, पूर्व पर्यायमां तो अनादिनुं मिथ्यात्व हतुं तेने कारण कई रीते कहेवुं? त्रिकाळी द्रव्य–गुण तरफ
वलण कर्युं त्यारे सम्यग्दर्शननी निर्मळ पर्याय थई–एटले द्रव्य–गुण तरफ वलण कर्युं ते कारण अने निर्मळ
पर्याय प्रगटी ते कार्य–एम कहो तो, त्यां द्रव्य–गुण तरफ वलण करनारी पर्याय अने निर्मळ थई ते पर्याय– ए
बंने कांई जुदी जुदी पर्यायो नथी, एक ज पर्याय छे, तेथी कारण–कार्य अभेद थइ जाय छे, एटले कारण–कार्यना
भेद ऊडी जाय छे; अने एकेक पर्यायनी निरपेक्षता साबित थई जाय छे. ज्ञाननी पर्याय स्वतंत्र ने पुरुषार्थनी
पर्याय स्वतंत्र; मोक्षमार्गरूप पर्याय स्वतंत्र ने मोक्षपर्याय पण स्वतंत्र. अहो! जुओ, आमां एकलो निरपेक्ष
वीतरागभाव ज आवे छे. ‘आम केम?’ अथवा ‘आनुं कारण कोण?’ एवा विकल्पने अवकाश नथी रहेतो,
एकलुं ज्ञातापणुं ज रहे छे.
आत्मा ज्ञानमात्र ज छे. ज्ञान शुं करे? जेम होय तेम फक्त जाणे. जाणवाना कार्यमां तो शांति ज होय.
जाणवामां आकुळता शेनी होय?–न ज होय. जो परमां हा के ना करे तो राग–द्वेष थाय अने ज्ञाननी
स्थिरतारूप शांति न टकी शके. हुं तो ज्ञान छुं, तेथी जाणवा सिवाय मारे परने पोतानुं मानवुं नथी तेम ज
‘आम केम’ एवो राग–द्वेषनो विकल्प करवो नथी–आम निर्णय करीने ज्ञानमात्रभावे परिणमवुं तेनुं नाम
मुक्ति; ते ज्ञानमात्रभावे परिणमतां पण आत्मानी अनंती शक्तिओ तेमां भेगी ज छे. ज्ञान साथे सुख छे,
स्वच्छता छे, प्रभुता छे, जीवन छे–एम अनंती शक्तिओ ज्ञानमात्रभावमां भेगी ज छे.
आत्मामां अनंत गुणो छे ते दरेकनुं लक्षण भिन्न भिन्न छे, पण आत्माना ज्ञानमात्रभावमां ते बधाय
आवी जाय छे. अनंत गुणथी अभेद आत्माने द्रष्टिमां लीधो त्यां अनंती शक्तिओ एक साथे निर्मळपणे
परिणमवा लागे छे. ज्ञान ज्यां अभेद आत्माने लक्षमां लईने परिणम्युं त्यां ते ज्ञप्तिमात्रभावनी साथे अनंती
शक्तिओ पण निर्मळपणे ऊछळे छे.
जुओ, सर्वज्ञ भगवान कहे छे के बटाटानी एक राई जेटली कटकीमां असंख्यात औदारिक शरीरो छे; ते
दरेक शरीरमां अनंत जीवो छे. ते दरेक जीवो जुदेजुदा स्वतंत्र छे; तेमांथी एकेक जीवमां पोतानी अनंती
शक्तिओ छे, ते शक्तिओ पण एकबीजाथी परस्पर भिन्न भिन्न छे; अने एकेक शक्तिनी क्रमे थती अनंती
पर्यायो छे, ते दरेक पर्याय पण भिन्न भिन्न अने स्वतंत्र छे; वळी एकेक पर्यायमां अनंत अविभागप्रतिच्छेद
अंशो छे, तेमांनो एक अंश बीजा अंशपणे नथी.–वस्तुस्वभावनी आवी स्वतंत्रताने जैनदर्शन बतावे छे. बधुंय
अनेकांतस्वरूप छे. द्रव्यमां अनेकांत, गुणमां अनेकांत, पर्यायमां अनेकांत अने तेना एकेक अविभागप्रतिच्छेद
अंशमां पण ‘स्वपणे छे ने परपणे नथी’ एवो अनेकांत छे. एकेक जीव अनंतधर्मनी मूर्ति छे. अनंत गुण–
पर्याय होवा छतां वस्तुपणे ते बधुं एक ज द्रव्य छे. अहो! दरेक आत्मा एक ज समयमां अनंतगुणोना भिन्न
भिन्न परिणमनथी भर्यो छे, छतां ते अनंत गुणोना परिणमनमां काळभेद नथी. आत्माना परिणमनमां बधा
गुणोनुं परिणमन भेगुं ज छे. ‘परस्पर भिन्न’ कहीने अनेकपणुं साबित कर्युं अने ‘अनंत धर्मोना समुदायरूपे
परिणमेलो एक ज्ञप्तिमात्र भाव ते आत्मा छे’–एम कहीने ज्ञानमात्र आत्मामां अनंत धर्मोने अभेद करी
दीधा. (अहीं ‘गुण’ अने ‘धर्म’ बंने शब्दो एकार्थ छे.)
द्रव्य पोते अनंत गुणोथी एक साथे परिणमी रह्युं छे. अनंतगुणोमां गुणभेदे भेद होवा छतां द्रव्यथी ते
अभेद छे; गुणोने परस्पर लक्षणभेद छे पण प्रदेशभेद नथी, परिणमननो काळभेद नथी; एक ज समयमां
ज्ञानमात्रभावनी अंदर बधाय गुणो एक साथे परिणमे छे. अहीं ज्ञानमात्रभाव कहेतां एकला ज्ञानगुणनी
पर्याय न समजवी. पण अनंत गुणना पिंडरूप आत्मानी पर्याय समजवी, केम के आत्माने ज ‘ज्ञानमांत्र’ कह्यो
छे. आत्मानी एक जाणनक्रियामां अनंत धर्मो समाई जता होवाथी आत्माने ज्ञानमात्रपणुं ज छे; अनंत धर्मो
होवा छतां आत्माने ज्ञानमात्रपणुं छे–ए वात अहीं आचार्यदेव सिद्ध करे छे. अनंतधर्मोने सिद्ध करीने तेने