मागशरः २४७८ः ३१ः
तेथी अहीं खास प्रयोजनभूत एवी ४७ शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे.
अहीं, ते ४७ शक्तिओ उपरनुं विवेचन आपतां पहेलां ते शक्तिओनां नाम आपवामां आवे छे–
(१) जीवत्वशक्ति(१७) अगुरुलघुत्वशक्ति(३२) अनेकत्वशक्ति
(२) चितिशक्ति(१८) उत्पादव्ययधु्रवत्वशक्ति(३३) भावशक्ति
(३) दशिशक्ति(१९) परिणामशक्ति(३४) अभावशक्ति
(४) ज्ञानशक्ति(२०) अमूर्तत्वशक्ति(३प) भावाभावशक्ति
(प) सुखशक्ति(२१) अकर्तृत्वशक्ति(३६) अभावभावशक्ति
(६) वीर्यशक्ति(२२) अभोक्तृत्वशक्ति(३७) भावभावशक्ति
(७) प्रभुत्वशक्ति(२३) निष्क्रियत्वशक्ति(३८) अभावाभावशक्ति
(८) विभुत्वशक्ति(२४) नियतप्रदेशत्वशक्ति(३९) भावशक्ति
(९) सर्वदर्शित्वशक्ति(२प) स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति(४०) क्रियाशक्ति
(१०) सर्वज्ञत्वशक्ति(२६) साधारण–असाधारण–(४१) कर्मशक्ति
(११) स्वच्छत्वशक्ति–साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति(४२) कर्तृत्वशक्ति
(१२) प्रकाशशक्ति(२७) अनंतधर्मत्वशक्ति(४३) करणशक्ति
(१३) असंकुचितविकासत्त्वशक्ति(२८) विरुद्धधर्मत्वशक्ति(४४) संप्रदानशक्ति
(१४) अकार्यकारणत्वशक्ति(२९) तत्त्वशक्ति(४प) अपादानशक्ति
(१प) परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति (३०) अतत्त्वशक्ति(४६) अधिकरणशक्ति
(१६) त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति(३१) एकत्वशक्ति(४७) संबंधशक्ति
–इत्यादि.
हवे अनुक्रमे ते शक्तिओ उपरनुं विवेचन आपवामां आवशे.
‘समयसारनी टीका’
‘श्रोताओनुं कर्तव्य’
(वीर सं. २४७६ प्र. अषाढ वद २ः समयसार कलश उपर पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी)
श्री अमृतचंद्र आचार्यदेव कहे छे के हुं ‘समयसार’ नी टीका करुं छुं; समयसार एटले शुद्ध आत्मा, तेनुं
वर्णन करवानो मारो हेतु छे, एटले आ टीकानुं ध्येय तो शुद्ध आत्मा ज छे. भले वचमां विकारनुं वर्णन आवशे
खरुं पण मारुं प्रयोजन तो ते विकारथी भिन्न शुद्ध आत्मा देखाडवानुं ज छे. विकारने हेयरूप बताववा तेनुं वर्णन
आवशे ने शुद्ध आत्माने उपादेयरूप बताववा तेनुं वर्णन आवशे. टीका करतां मारुं लक्ष विकार उपर नथी पण
शुद्धात्मा उपर ज छे. टीकाद्वारा हुं शुद्धात्मानुं स्वरूप समजाववा मागुं छुं. माटे समयसारनुं श्रवण करनार
श्रोताओने पण ते ज लक्ष होवुं जोईए. शुभभावने ज प्रयोजन मानीने अटकी जाय तो तेणे ‘समयसार’ नुं
श्रवण न कर्युं कहेवाय. विकार वगरनो ज्ञायक शुद्ध आत्मा छे ते बताववानुं प्रयोजन छे तेथी श्रोताओए पण ते
ज प्रयोजन राखीने श्रवण करवुं जोईए. आचार्यदेव कहे छे के तुं सिद्ध छो, तारा आत्मामां अमे सिद्धपणुं
स्थापीए छीए; तारा सिद्धस्वभावना लक्षे श्रवण करजे. वच्चे विकल्प आवे ते विकल्प के निमित्त उपर लक्षनुं जोर
आपीश नहि, लक्षनुं जोर तो शुद्ध आत्मा उपर ज राखजे. मारो आत्मा विकाररहित शुद्ध ज्ञाता छे तेना उपर ज
मारुं लक्ष छे, ने श्रोताओने आ टीकाद्वारा हुं तेनुं ज लक्ष कराववा मागुं छुं; माटे श्रोताओए पण पोतानो आत्मा
विकार वगरनो छे–एवा स्वभावना लक्षे सांभळवुं. आ रीते आचार्यदेव विकारना अंश उपरनी द्रष्टि छोडावीने
शुद्धात्मानी रुचि करावे छे. शास्त्रना शब्द उपर के तेना लक्षे थता विकल्प उपर रुचिनुं जोर न आपतां, शास्त्रना
वाच्यभूत शुद्ध आत्मस्वभावनी रुचि करीने तेनो अनुभव करवानुं आचार्यदेव कहे छे.
हुं समयसारनी टीका करुं छुं एटले खरेखर तो टीकाना वाच्यभूत शुद्धात्मानुं घोलन करुं छुं; ते
शुद्धात्माना घोलनथी मारी परिणति निर्मळ–निर्मळ थती जाय छे. ने जे श्रोताजनो एवा शुद्धात्माने
स्वानुभवथी समजशे तेने पण मोहनो क्षय थईने परिणति निर्मळ थशे. *