Atmadharma magazine - Ank 099
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः प४ः आत्मधर्मः ९९
सम्यग्दर्शन अंर्तस्वभावना अवलंबने ज प्रगटे छे, अने जिनसूत्र पण ते स्वभावनुं ज अवलंबन
करवानुं ज बतावे छे, तेथी सम्यग्दर्शननुं बाह्य निमित्त जिनसूत्र छे. अने ते जिनसूत्रे कहेला शुद्ध
कारणपरमात्मानुं स्वरूप जाणनारा मुमुक्षुओ ते सम्यक्त्वना अंतरंग हेतु छे. जिनसूत्र जेवो शुद्ध आत्मा कहेवा
मागे छे तेवा शुद्ध आत्माने जे जाणे तेणे जे खरेखर जिनसूत्रने जाण्या कहेवाय. मात्र शास्त्रना शब्दने जाणे पण
तेमां कहेला शुद्ध आत्माने न जाणे तो ते जीवे खरेखर जिनसूत्रने जाण्या न कहेवाय. ए रीते जिनसूत्रना
जाणनारा एवा सम्यग्द्रष्टि जीवो ज बीजा जीवने सम्यक्त्वपरिणामना अंतरंगहेतु छे, अने त्यां जिनसूत्र ते
बहिरंगहेतु छे.
अहीं निमित्तमां अंतरंग अने बाह्य एवा बे प्रकार पाडीने समजाव्युं छे. अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट
करनार जीवने एकला शास्त्रना शब्दो ज निमित्त नथी होता, परंतु ते शास्त्रनो आशय बतावनारा सम्यग्द्रष्टि
जीव पण निमित्त तरीके होय ज छे एम अहीं बताव्युं छे. जो के अन्य सम्यग्द्रष्टि पुरुष पण खरेखर तो पोताथी
बाह्य छे, पण ते जीवनो अंतरंग अभिप्राय पकडवो ते पोताने सम्यग्दर्शननुं कारण छे तेथी उपचारथी ते जीवने
पण सम्यग्दर्शनना अंतरंगहेतु कह्या छे. शास्त्रना शब्दो तो अचेतन छे अने आ सम्यग्द्रष्टि जीव तो पोते
सम्यक्त्वपरिणामे परिणमेलो छे. तेथी शास्त्र करतां ते निमित्तनी विशेषता बताववा माटे ‘अंतरंग’ शब्द
वापर्यो छे. तेना विना एकला पुस्तकना निमित्तथी कोई जीव अपूर्व सम्यक्त्व पामी जाय–एम बने नहि.–आ
देशनालब्धिनो अबाधित नियम छे.
अहीं तो जे जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे तेवा जीवने केवुं निमित्त होय ते ओळखाव्युं छे. अज्ञानीने
पूर्वे अनंतवार जे देशनालब्धि मळी ते देशनालब्धिनी अहीं वात नथी. केमके उपादान वगर निमित्त कोनुं?
सत् समजनारा जीवने सामे सत्रूपे परिणमेला सम्यग्द्रष्टि ज निमित्त होय छे. अज्ञानीनी वाणी
सम्यग्दर्शननुं निमित्त थती नथी, केमके ते जीव पोते सम्यक्त्वरूपे परिणम्यो नथी. ज्ञानीने तो पोताने
दर्शनमोहना क्षयादिक थया छे तेथी ते सामा जीवने सम्यक्त्व परिणाममां निमित्त थई शके छे. ए रीते
सम्यग्दर्शनपरिणाममां बाह्य निमित्त वीतरागनी वाणी अने अंतरंग–निमित्त जेमने दर्शनमोहनो अभाव थयो
छे एवा जिनसूत्रना ज्ञाता पुरुषो छे.
ज्ञाननो स्वभाव स्व–परप्रकाशक छे. परम शुद्ध आत्मतत्त्वनी श्रद्धा अने ज्ञान थतां ज्यां स्व–
परप्रकाशक ज्ञानसामर्थ्य खील्युं त्यां ते ज्ञान एम जाणे छे के जीवने सम्यक्त्वपरिणमनमां सामे निमित्त तरीके
पण सम्यग्द्रष्टि ज होय. जो के सम्यक्त्वपरिणाम प्रगट करनार जीवने तो जिनसूत्र तेम ज ज्ञानी ए बंने
निमित्तो पोताथी बाह्य ज छे, पण निमित्त तरीके तेमां बाह्य अने अंतरंग एवा बे भेद छे. ज्ञानीनो आत्मा
अंतरंगनिमित्त छे अने ज्ञानीनी वाणी ते बाह्यनिमित्त छे. एकवार साक्षात् चैतन्यमूर्ति ज्ञानी मळ्‌या वगर
शास्त्रना कथननो आशय शुं छे ते समजाय नहि. शास्त्र पोते कांई पोताना आशयने समजावतुं नथी, माटे ते
बाह्यनिमित्त छे. शास्त्रनो आशय तो ज्ञानीना ज्ञानमां छे. जेओ सम्यग्द्रष्टि छे तेमने अंतरंगमां दर्शनमोहनो
क्षय वगेरे छे तेथी ते ज अंतरंगनिमित्त छे.
जे पात्र जीवमां स्वभावनुं अवलंबन लेवानी योग्यता थई छे...शुद्ध कारणपरमात्मानुं अवलंबन लईने
सम्यक्त्व प्रगट करवानी तैयारी थई छे....तेवा जीवने सामे अंतरंगनिमित्त तरीके पण जेने दर्शनमोहना
क्षयादिक थया होय तेवा जिनसूत्रना ज्ञायक पुरुषो ज होय छे, अने बाह्यनिमित्त तरीके जिनसूत्र होय छे. आमां
देशनालब्धिनो ए नियम आवी जाय छे के प्रथम ज्ञानी पुरुषनी देशना ज निमित्त तरीके होय; एकला शास्त्र के
गमे तेवा पुरुषनी वाणी देशनालब्धिमां निमित्त न थाय. देशनालब्धि माटे एकवार तो चैतन्यमूर्ति ज्ञानी
साक्षात् मळवा जोईए.
आ नियमसार शास्त्र घणुं अलौकिक छे, अने तेनी टीकामां पण घणा अद्भुत भावो खुल्ला कर्यां छे.
आ शुद्धभावअधिकारनी छेल्ली पांच गाथाओमां रत्नत्रयनुं स्वरूप बताव्युं छे. पोतानो स्वभाव
अनंतचैतन्यशक्तिसंपन्न भगवान कारणपरमात्मा छे, तेना आश्रये जे सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव प्रगटे ते मुक्तिनुं
कारण छे. अंतरंग शुद्धकारणतत्त्व एवो मारो आत्मा ज मारे