कसोटी प३ मी गाथा उपर अजमावीए एटले के तेनी गाथाने (गाथाना अर्थने) विस्तारीए तो श्री
पद्मप्रभदेवकृत टीका बने छे अने श्री पद्मप्रभदेवकृत टीकाने संक्षेपी नाखीए तो ते मूळ गाथारूपे (–गाथाना
अर्थरूपे) थईने ऊभी रहे छे. आ रीते सिद्ध थाय छे के गाथानो जे अर्थ करवामां आव्यो छे ते ज अर्थ व्याजबी
छे अने टीकाकार महामुनिवरे ते ज अर्थने कुंदकुंद–भगवानना हृदयमां रहेलो पारखीने टीकारूपे विकसाव्यो छे;
बीजो कोई अर्थ घटतो नथी.
भिन्न एवा अन्य ज्ञानीओने अंतरंगहेतुभूत कह्या होवाथी ‘उपचार’ शब्द वापर्यो छे, अने ते ज्ञानीओ
दर्शनमोहना क्षयादिवाळा होवाथी अर्थात् सम्यक्त्वपरिणामे परिणमेला होवाथी तेमने (भले उपचारथी पण)
‘अंतरंग’ हेतुओ कह्या छे. सम्यक्त्वपरिणमनरहित केवळ शास्त्रपाठी जीवोने दर्शनमोहना क्षयादि नहि होवाथी
तेओ (उपचारथी पण) अंतरंग–हेतुपणाने प्राप्त नथी. जिनसूत्रने पण कोई रीते अंतरंग–हेतुपणुं नथी. आ
रीते कोई पण जीवने सम्यक्त्वपरिणाम अर्थे, सम्यक्भावे परिणत अन्य ज्ञानीपुरुषो अंतरंगनिमित्त छे एम
अहीं महामुनिवरे प्रणीत कर्युं छे. जिनसूत्रने अंतरंगनिमित्त कह्युं नथी अने केवळ शास्त्रपाठी मिथ्याद्रष्टि
जीवोनी तो अहीं गणतरी ज करी नथी.
सम्यक्त्वभावे परिणमेला ज्ञानीपुरुषोनुं–त्रणेनुं समानपणुं ज भासतुं होय तो तेमणे मध्यस्थतापूर्वक फरीफरीने
विचारवुं योग्य छे अने महामुनिवरोए निरूपेलुं ज्ञानीपुरुषोनुं अंतरंगनिमित्तपणुं हृदयमां बेसाडवायोग्य छे.
उत्तरः–ना, ज्ञानवडे ज देखाय–जणाय. आंख तो अनंत रजकणनो पिंड छे,
रहीने जाण्या करे छे. ज्ञानवडे टाढुं–ऊनुं वगेरे जणाय छे. ज्ञान ज्ञानमां जाणवानी
क्रिया करे छे, ते ज्ञाननी क्रियामां ज्ञान अर्थात् आत्मा पोते पोताने जाणे अने पर
तेमां भिन्नपणे जणाय, एवो ज्ञाननो स्वभाव छे. ते (ज्ञान) दरेक आत्मानो गुण छे.
पोते पोताने ज्ञेय करे तो बधा धर्म जणाय छे. आ देहमां रहेलो आत्मा देहथी जुदो छे
एम न जाणे तो अंतरमां जुदापणाना ज्ञाननुं कार्य जे शांति ते थाय नहि, पण
अज्ञाननुं कार्य अशांति–जे जीव अनादिथी करी रह्यो छे ते–थाय.