Atmadharma magazine - Ank 099
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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संसारभ्रमणनुं कारण
अने तेनाथी छूटवानो उपाय
एवं अनादिकालं पंचप्रकारे भ्रमति संसारे।
नानादुःखनिधाने जीवः मिथ्यात्वदोषेण।।७२।।
इति संसारं ज्ञात्वा मोहं सर्वादरेण त्यक्त्वा।
तं ध्यायत स्वस्वभावं संसरण येन विनश्यति।।७३।।
ए रीते, पांच प्रकारना संसारमां आ जीव
अनादिकाळथी मिथ्यात्वदोषने लीधे भमे छे. केवो छे संसार?–
अनेक प्रकारना दुःखोनुं निधान छे.
ए रीते, पूर्वोक्त प्रकारना संसारने जाणीने, हे भव्य
जीवो! सर्व प्रकारना उद्यमवडे मोहने छोडीने ते आत्मस्वभावने
ध्यावो–के जेनाथी संसारना भ्रमणनो नाश थाय.
–स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा.
*
अर्धश्लोकमां मुक्तिनो उपदेश
चिद्रूपः केवलः शुद्ध आनंदात्मेत्यहं स्मरे।
मुक्त्यै सर्वज्ञोपदोशः श्लोकार्द्धेन निरूपितः।।२२।।
‘हुं चिद्रूप, केवळ, शुद्ध, आनंदस्वरूप छुं एम स्मरण
करुं छुं;’ मुक्ति माटेनो सर्वज्ञनो उपदेश आ अर्ध श्लोकथी
निरूपित छे.
– (तत्त्वज्ञान तरंगिणी अ. ३)
*
परम चैतन्यरत्न!
तदेवैकं परं रत्नं सर्वशास्त्रमहोदधेः।
रमणीयेषु सर्वेषु तदेकं पुरतः स्थितम्।।४३।।
ते एक चैतन्यस्वरूप आत्मा ज समस्त शास्त्ररूपी
महासमुद्रनुं परम रत्न छे (अर्थात् ते चैतन्यरत्ननी प्राप्ति
माटे ज सर्वशास्त्रनुं अध्ययन करवामां आवे छे), सर्वे
रमणीय पदार्थोमां ते चैतन्यस्वरूप आत्मा ज एक रमणीय
तथा उत्कृष्ट छे.
– (पद्मनंदीः एकत्वअशीति अधिकार)
*