Atmadharma magazine - Ank 100
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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माघः २४७८ः ७३ः
जडनो माल भर्यो छे, तेनी क्रियामांथी आत्माना धर्मनो माल नहि मळे. अने चैतन्यभगवान आत्मानी दुकाने
अनंतगुणोनो खजानो भर्यो छे, त्यांथी ज्ञानादि धर्मनो माल मळशे पण विकार तेमांथी नहि मळे.
जेम अफीणवाळानी दुकाने तो सारुं अफीण मळे पण कांई मावो के हीरा न मळे; अने कंदोईनी
दुकाने मावो मळे पण तेनी दुकाने कांई अफीण न मळे; झवेरीनी दुकाने हीरा मळे पण तेनी दुकाने कांई
अफीण न मळे. तेम जेने अफीण जेवा विकारी–शुभाशुभभावो जोईता होय तेने आत्माना स्वरूपमां ते मळे
तेम नथी; विकारी भावो अने जडनी किया ते तो अफीणनी दुकान जेवा छे, तेमांथी चैतन्यनो निर्मळ धर्म
मळी शके तेम नथी. अने चैतन्यमूर्ति आत्मा अनंतशक्तिनो भंडार छे ते झवेरी अने कंदोईनी दुकान जेवो
छे. आत्माना स्वरूपमां विकारने संघरी राखे तेवी कोई शक्ति नथी, तेम ज पैसा वगेरेने संघरी राखे एवी
पण कोई शक्ति तेनामां नथी. आत्मानी जीवत्वशक्तिमां एवी ताकात छे के आत्माना चैतन्यजीवनने
त्रिकाळ टकावी राखे, पण ते जीवत्वशक्तिमां एवी ताकात नथी के ते पैसाने, शरीरने के विकारने आत्मामां
टकावी राखे. माटे जेने आत्मानुं चैतन्यजीवन जोईतुं होय तेणे आत्मानी भावना करवी ने विकारनी–
व्यवहारनी भावना छोडवी. जेने रागनी–व्यवहारनी भावना छे तेने अनंतशक्तिना पिंड चैतन्यनी भावना
नथी. आत्मा तो पोतानी ज्ञानादि अनंतशक्तिनो पिंड छे, तेनामां बीजा आत्माओ नथी, बीजाना कोई
गुणो के पर्यायो पण तेनामां नथी; पोताना स्वभाव सिवाय कोई पण बीजा संयोगोने आत्मा पोतामां
भेळवे एवी तेनी ताकात नथी, अने पर्यायना क्षणिक पुण्य–पापने पण बीजा समये टकावी राखे एवी
एनी ताकात नथी. पहेला समये जे विकार थयो ते तो बीजा समये टळी ज जाय, तेने कोई पण आत्मा
टकावी न शके. पण पोते पोतानी निर्विकारी अनंती शक्तिने एक साथे त्रिकाळ टकावी राखे एवुं आत्मानुं
सामर्थ्य छे. तेम ज ज्ञान–दर्शनथी एक समयमां बधाने जाणे–देखे एवी तेनी ताकात छे, पण कयांय
घालमेल करवानी के परने पोतानुं करवानी आत्मानी ताकात नथी. आवा भगवान आत्मानी दुकाने
चैतन्यशक्ति मळे पण विकार न मळे, एटले के आत्मस्वभावनी सन्मुख थतां चैतन्यना परिणमनमां
अनंतशक्तिओ निर्मळपणे परिणमे छे, पण विकार परिणमतो नथी.
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मोक्षमार्गनुं प्रथम पगथियुं
त्मा अने जड बंने पदार्थो तद्न भिन्न छे. बंनेमां दरेक क्षणे पोतपोतानी अवस्था स्वतंत्रपणे
थाय छे. आत्मा जडथी तद्न भिन्न छे एम जाण्या विना आत्मस्वरूपनी रुचि थाय नहि, रुचि विना श्रद्धा
नहि, श्रद्धा विना स्थिरता नहि, स्थिरता विना मुक्ति नहि. आत्मामां थती एक समयनी क्षणिक विकारी
अवस्थाने ध्यानमां न लेतां एकला ज्ञायक धु्रवस्वभावने लक्षमां लई तेमां ठर्यो ते तो ज्ञाता ज छे. स्वभावे
आत्मा निर्विकारी, आनंदघन, सच्चिदानंदस्वरूप, ज्ञाता–द्रष्टा, स्वावलंबी अने स्वतंत्र छे; एवा आत्मा
तरफनी द्रष्टि ते सम्यग्दर्शन छे, तेनुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे अने ते स्वभावमां स्थिरता थवी ते
सम्यक्चारित्र छे, आ ज मुक्तिनो मार्ग छे.
आत्मानो स्वभाव अरूपी ज्ञानआनंदनो घन ज छे; आत्मामां क्षणवर्ती विकारी भावो देखाय छे
ते तरफ द्रष्टि करवामां न आवे.......ने नित्य एकरूप स्वभाव तरफ द्रष्टि करवामां आवे तो आत्मा
अबंध, निर्विकारी, निर्मळ, आनंदरूप चैतन्यज्योति छे. वर्तमान अवस्थामां पुण्य पापना क्षणिक विकार
अने मति–श्रुत ज्ञानअवस्था वर्ते छे तेना भेद रहित, विकल्परहित, एकाकार एकलो ज्ञायक धु्रवपणे
वर्तमानमां पूरो जणायो ते तो ज्ञाता ज छे. एम पर निमित्तना भेद रहित, उपाधि रहित, एकाकार
ज्ञायक सामान्य धु्रवपणे आत्माने ओळखवो ते ज सम्यग्द्रष्टि–परमार्थद्रष्टि छे, ते ज मोक्षमार्गनुं प्रथम
पगथियुं छे.
(जुओ, समयसार–प्रवचनः १ पृ. १प८–९)
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