Atmadharma magazine - Ank 100
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः ७२ः आत्मधर्मः १००
अहो! ज्ञानीना हृदयमां तीर्थंकर वसे छे, ज्ञानीना अंतरमां सिद्ध भगवान वसे छे. सिद्ध भगवान अने तीर्थंकर
भगवाननो जेवो आत्मा छे तेवो ज मारो आत्मा छे–एम जेणे परमात्मा जेवा पोताना आत्मानी प्रतीत करी
छे ते धर्मात्माना हृदयमां अनंता सिद्ध भगवंतोनो अने तीर्थंकर देवोनो वास छे. जेणे पोताना पूर्ण स्वभावनो
भरोसो कर्यो तेणे पोताना आत्मामां सिद्धोने अने तीर्थंकरोने स्थाप्या अने रागने के अपूर्णताने आत्मामांथी
काढी नांख्या,–तेनो निषेध कर्यो. ज्ञानीना आत्मामां तीर्थंकरनो वास छे, तीर्थंकरदेव तेना काळजामां बेसीने बोले
छे, जे तीर्थंकरदेव कहे छे ते ज ज्ञानीनुं हृदय बोले छे; केम के तीर्थंकर जेवा ज परिपूर्ण पोताना आत्माने तेणे
प्रतीतमां लईने अनुभव कर्यो छे. अहो! मारा ज्ञाननो स्वभाव एवो छे के त्रणकाळना समस्त तीर्थंकरोने एक
समयमां जाणी लउं; एक नहि पण अनंत तीर्थंकरोने अने सिद्धोने मारा ज्ञाननी एक पर्यायमां समावी दउं–
एवो विशाळ मारा ज्ञाननो महिमा छे,–एम ज्ञानीने प्रतीत छे.
त्रणकाळना तीर्थंकरोने जाणे, सिद्धोने जाणे, संतोने–धर्मात्माओने जाणे, तेम ज ऊंधा पडेला जीवोने
पण जाणे, अभव्यने पण जाणे ने अजीवने पण जाणे, अनंत अनंत आकाश छे तेने पण जाणे–आवुं
ज्ञानशक्तिनुं स्वरूप छे. जेनो स्वभाव ज जाणवानो छे ते कोने न जाणे? ज्ञान पोते पोतामां ज एकाग्र रहीने
बधाने जाणी ल्ये छे, जाणवा माटे तेने कयांय बहार लंबावुं नथी पडतुं. आवा ज्ञानने कयां शोधवुं? शरीरनी
क्रियामां के शास्त्रना शब्दोमां गोतवा जाय तो आवुं ज्ञान न मळे, सम्मेदशिखर तीर्थना पहाड उपर के मंदिरमां
जईने गोते तो त्यां पण आवुं ज्ञान मळे नहि; आ ज्ञान तो आत्मानी निजशक्ति छे एटले आत्मामां
अंतरशोध करे तो आवुं ज्ञान मळे. आत्मामां आ ज्ञानशक्ति तो त्रिकाळ छे पण तेनो विश्वास करतां पर्यायमां
तेनो विकास प्रगटे छे.
ज्ञान तो अभेद–भेद, सामान्य–विशेष बधाने जाणे छे एटले ज्ञानना विषयमां अनंत विशेष प्रकारो
पडे छे; दर्शनना विषयमां तेवा विशेषो पडता नथी. त्रणे काळमां जे जे समये जेम थवानुं छे तेम तेने जाणी
लेवानो ज्ञाननो स्वभाव छे, पण तेमां कांई आघुंपाछुं करवानो के रागद्वेष करवानो ज्ञाननो स्वभाव नथी.
आवा ज्ञाननी जे प्रतीत करे तेनुं ज्ञान आत्मा तरफ वळ्‌या वगर रहे नहि. आत्मा ज्ञानादि अनंत शक्तिओथी
अभेद छे तेना आश्रये ज धर्म थाय छे.
अहीं त्रीजी अने चोथी शक्तिमां दशिशक्ति अने ज्ञानशक्तिनुं वर्णन कर्युं; अने आगळ नवमी अने
दसमी शक्तिमां सर्वदर्शित्व तथा सर्वज्ञत्वशक्तिनुं वर्णन करशे, तेमां आ दशिशक्ति तथा ज्ञानशक्तिनुं विशेष
सामर्थ्य बतावशे.
(अहीं चोथी ज्ञानशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.)
*
(वीर सं. २४७प कारतक सुद ६)
जुओ, आ धर्मनी वात छे.
जेणे आत्मानो धर्म करवो होय तेणे शुं करवुं?–के पोताना आत्माने ओळखवो.
आत्मा केवो छे?–तेनामां शुं छे?–के आत्मा पोतानी अनंती शक्तिवाळो छे, तेनामां ज्ञान छे, दर्शन छे,
सुख छे, जीवन छे, प्रभुता छे, इत्यादि अनंत शक्तिओ छे, आत्मामां पोतानी अनंती स्वच्छ शक्तिओ भरेली
छे, पण तेनामां विकार, शरीर के स्त्री–पुत्र–लक्ष्मी वगेरे कांई नथी. एटले जेने आत्माना धर्मनी खरी भावना
होय तेने ते विकार, शरीर वगेरेनी भावना न होय; जेने विकार, शरीर स्त्री–पुत्र–लक्ष्मी के स्वर्ग जोईतां होय
तेने आत्मानो धर्म जोईतो नथी, केमके ते कोई वस्तुओमां आत्मानो धर्म नथी, अने आत्मामां ते कोइ वस्तुओ
नथी. कोई परवस्तुथी आत्मानो धर्म थतो नथी अने आत्माना धर्मथी कोई परवस्तुओ मळती नथी. आत्मा
पोते पोतानी अनंतशक्तिओथी भरपूर भंडार छे, तेना ज आधारे तेने धर्म थाय छे. माटे आत्मानी सन्मुख
थईने तेमां शोधे तो धर्म मळशे. धर्म करनारे प्रथम पोताना आत्माने ओळखवो जोईए.
चैतन्यमूर्ति आत्मा ज्ञानलक्षणथी ओळखाय छे. ज्ञानलक्षणथी ओळखातो आत्मा अनंतधर्मनो पिंड छे.
तेमांथी आत्मानो धर्म प्रगटे छे. ज्यां जे माल भर्यो होय त्यांथी ते माल मळे. आ शरीरनी दुकानमां तो