Atmadharma magazine - Ank 100
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः ७६ः आत्मधर्मः १००
पण आत्मा परनो तो कर्ता नथी. व्यवहारे आत्मा रागनो कर्ता छे, केम के राग ते पोतानी पर्यायनो भाव छे
तेथी तेमां ‘तद्गुणसंविज्ञान’ लागु पडे छे.
‘असद्भूत व्यवहार’ शुं बतावे छे?
तारा द्रव्यनी प्रभुतामां तो विकार नथी, पण पर्यायमां विकार छे. असद्भूत व्यवहारथी ते विकारने
जीवनो कहीने एम बताव्युं छे के तारी पर्यायमां जे विकार थाय छे ते कोई बीजुं करावतुं नथी, पण तेमां तारी
पर्यायनी प्रभुता छे–एम तुं जाण; विकार थवानी लायकात तारी पर्यायनी छे. ते विकारने ‘असद्भूत
व्यवहार’ कहेतां ज तेमां ए वात आवी गई के निश्चयथी ते तारुं स्वरूप नथी. चैतन्यना स्वभावमां विकार
नथी तेथी ते ‘असद्भूत’ छे, अने पोतानी पर्याय छे माटे ते ‘व्यवहार’ छे. ए रीते, पर्यायमां राग छे तेने
ओळखीने स्वभावमां तेनो निषेध करवा माटे तेने ‘असद्भूत व्यवहार’ कह्यो छे. त्यां जे व्यक्त राग छे ते
उपचरितअसद्भूत व्यवहार छे अने जे अव्यक्तराग छे ते अनुपचरितअसद्भूत व्यवहार छे.
असद्भूत व्यवहारथी विकारने जीवनो कहीने विकारमां पोतानी पर्यायनी प्रभुता बतावी छे एटले के
पोतानी पर्याय ज स्वतंत्रपणे विकारने करे छे एम बताव्युं छे, अने द्रव्यना त्रिकाळी स्वभावमां तेनो निषेध
कर्यो छे. असद्भूत व्यवहारथी विकार जीवनो छे–एम जे समजे ते जीव विकारनुं कारण परने माने नहि, तेमज
विकारने पोतानुं परमार्थस्वरूप माने नहि. विकारने असद्भूत–व्यवहारथी जीवनो कहेतां ज तेमां ए बंने वात
आवी जाय छे के निश्चयथी विकार ते जीवनुं स्वरूप नथी तेम ज पर चीज जीवने विकार करावती नथी. विकारनी
लायकात पोतानी वर्तमान पूरती पर्यायनी छे तेथी तेने व्यवहार कहीने निश्चयस्वभावमां तेनो निषेध कर्यो.
आत्मा परनुं करे एवो तो कोई नय ज नथी तेथी तेना निषेधनी पण वात अहीं लीधी नथी.
पर्यायमां विकारनुं अस्तित्व छे ते व्यवहारनुं ज्ञान करावीने, ते विकार छोडाववा निश्चय
स्वभावना आश्रये तेनो निषेध
श्री पंचास्तिकायनी २७ मी गाथामां कहे छे के आस्रव–बंधपणे के संवर–निर्जरा–मोक्षपणे परिणमवामां
आत्मा ज प्रभु छे, आत्मा स्वतंत्रपणे ते पर्यायरूपे परिणमे छे, कोई बीजुं तेने पराणे परिणमावतुं नथी.
ज्ञानप्रधान कथनमां द्रव्य–पर्याय बंनेनुं ज्ञान कराववा एम कह्युं के विकारपणे आत्मा ज परिणमे छे. पण त्यां
ए वात समजी लेवी के कथन असद्भूत व्यवहारनयथी छे.
अहीं द्रव्यद्रष्टि कराववा कहे छे के निश्चयथी ज्ञायकभाव शुभ–अशुभ विकारपणे परिणमतो ज नथी तेथी
ते प्रमत्त के अप्रमत्त नथी. द्रव्यस्वभावमां विकारनो निषेध कर्यो के आत्मा विकारपणे थतो ज नथी. ते निषेध
कयारे कर्यो? जो पर्यायमां विकार बिलकुल थतो ज न होय तो तेनो निषेध करवानी पण जरूर न पडे. साधक
जीव पोते पर्यायमां अल्प विकारपणे परिणमे छे तेथी तेनो स्वभावना आश्रये निषेध कर्यो छे. व्यवहारे पोतानी
पर्यायमां विकार थवानी प्रभुता छे एटले के विकारपणे आत्मा परिणमे छे एम असद्भूत व्यवहारनयथी
जाणीने निश्चयथी तेनो निषेध कर्यो. विकार कोई पर संयोग करावता नथी तेम ज आत्मा पर संयोगमां कांई
फेरफार करी शकतो नथी एटले के परमां तो आत्मानी प्रभुता नथी तेथी परनो तो निषेध करवानुं रहेतुं नथी.
जे पोतानी पर्यायनी प्रभुताथी करतो होय तेनो निषेध करी शकाय. पर करावतुं होय तो तेने रोकी न शकाय.
विकारमां आत्मानी एक समयपूरती पर्यायनी प्रभुता छे, अने द्रव्यनी प्रभुता त्रिकाळ छे तेमां विकार नथी.
विकारमां आत्मानी प्रभुता छे एम असद्भूत व्यवहारथी ज्ञान करावीने द्रव्यनी प्रभुतामां तेनो निषेध कर्यो. तुं
ज्ञायकस्वभावने लक्षमां ले, पर्याय उपरथी तारुं लक्ष खेंची ले. परम शुद्ध ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख द्रष्टि करवाथी
पर्यायमां शुद्धता थशे. तारी पर्यायमां तारा अपराधथी विकार थाय छे माटे तेने व्यवहार कह्यो पण तारुं परमार्थ
स्वरूप बताववा तेनो निषेध करीए छीए. विकार पोतानी पर्याय छे तेथी तेने व्यवहार कहीने–अभूतार्थ
गणीने–तेनो निषेध कर्यो, पण परनो निषेध न कर्यो केम के पर साथे तो आत्माने कांई संबंध नथी. स्वभावने
चूकीने पोतानी पर्यायमां पोते विकार करे छे ने स्वभावना लक्षे पोते तेने टाळे छे.
बधा अध्यात्मना मूळियां आ समयसारमां रहेलां छे.
कुंभार घडो करे के आत्मा देहनी क्रिया करे ए वातने तो अहीं नयाभासमां गणी छे. आत्मा परनो