Atmadharma magazine - Ank 100
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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माघः २४७८ः ७७ः
तो कर्ता नथी तेथी तेना निषेधनी वात करी नथी. आत्मा रागने व्यवहारे करे छे तेथी ते व्यवहारनो निषेध
कराव्यो छे. हे भाई! निश्चयथी तुं ज्ञायकस्वरूप छे, तारा ज्ञायकस्वरूपमां राग नथी; ते ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि
कर, तो पर्यायमां थता विकारनो निषेध थई जाय.
अहीं तो पोतामां ने पोतामां ज नयो लीधा छे. पोतामां त्रिकाळी स्वभाव ते मुख्य अने अवस्था ते
गौण, एटले स्वभाव ते निश्चय अने अवस्था ते व्यवहार–ए निश्चय–व्यवहार लीधा छे. पण स्व ते मुख्य ने
परद्रव्य ते गौण, स्व ते निश्चय अने पर ते व्यवहार–एम अहीं नथी लीधुं. आ रीते पहेलां पोतामां ज नय
समजावीने, विकारथी स्वभावनुं भेदज्ञान करावीने, पछी पर साथे निमित्त–नैमित्तिक संबंध केवो होय ते
बताववा बीजा व्यवहारनी वात करशे. अहीं ‘ज्ञायकभाव प्रमत्त–अप्रमत्त नथी’ एम कहीने पोतानी पर्यायमां
थता बे प्रकारना असद्भूत व्यवहारनो निषेध कर्यो.
(३) उपचरित सद्भूत व्यवहार अने तेनो निषेध
छठ्ठी गाथामां ‘ज्ञात ते तो ते ज छे’ एम कह्युं तेमां व्यवहारनयना त्रीजा प्रकारनो–उपचरित
सद्भूत व्यवहारनो निषेध आव्यो. खरेखर ज्ञान तो ज्ञान ज छे, ज्ञानमां ज्ञान ज जणाय छे, छतां ‘ज्ञान
परने जाणे छे’ एम कहीने परनी अपेक्षाथी ज्ञानने ओळखाववुं ते उपचरित सद्भूत व्यवहार छे. राग
जीवनो छे–एम कहेवुं ते तो असद्भूत व्यवहार छे, अने ज्ञान रागने जाणे छे–एम कहेवुं ते उपचरित
सद्भूत व्यवहार छे. ज्ञायक ते ज्ञायक ज छे–ए निश्चय छे. रागने जाणती वखते पण ज्ञान ज्ञानपणे ज रह्युं
छे, ज्ञान रागपणे थई गयुं नथी. ज्ञान परने जाणे छे एटले के परनुं ज्ञान थाय छे एम कहेवुं ते उपचरित
सद्भूत व्यवहार छे. निश्चयथी परनुं ज्ञान नथी, ज्ञानमां पर जणातुं नथी, ज्ञान तो ज्ञान ज छे;
परालंबननी अपेक्षा पण ज्ञायक आत्माने निश्चयथी नथी. ए रीते ज्ञायक ते ज्ञायक ज छे एम कहेतां
व्यवहारना त्रीजा प्रकारनो निषेध थयो.
ए प्रमाणे (१) उपचरित असद्भूत व्यवहार. (२) अनुपचरित असद्भूत व्यवहार अने (३)
उपचरित सद्भूत व्यवहार–ए त्रण प्रकारनो व्यवहार अने ज्ञायकभावना आश्रये ते त्रणेयनो निषेध छठ्ठी
गाथामां आव्यो.
हवे व्यवहारनयनो चोथो प्रकार ‘अनुपचरित सद्भूत व्यवहार’ छे; आ, व्यवहारनो छेल्लामां छेल्लो
अने सूक्ष्म प्रकार छे, व्यवहार तरीके ते ऊंचामां ऊंचो नय छे, तेनो निषेध सातमी गाथामां आवशे.
ज्ञायक आत्मा प्रमत्त–अप्रमत्त नथी एम कहीने, उपचरित असद्भूत तेम ज अनुपचरित असद्भूत–
एवा बंने प्रकारना स्थूळ व्यवहारनयोने तो पहेला ज ऊडाडया; अने पछी ‘ज्ञायक ते तो ते ज छे’ एम कहीने
व्यवहारनयना त्रीजा प्रकारने (उपचरित सद्भूत व्यवहारने) ऊडाडयो. हवे ‘आत्मा ज्ञायक छे’ एवा गुण–
गुणी भेदरूप सौथी छेल्लो सूक्ष्म अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय बाकी छे, तेनो पण निषेध सातमी गाथामां
कर्यो छे. ए व्यवहारनो निषेध करतां निश्चय आवे छे, एटले के राग, पर्याय के गुण–गुणी भेद ए बधा उपरनुं
लक्ष छोडीने एकरूप ज्ञायक आत्माने लक्षमां लेवो ते निश्चय छे.
प्रभु! तारी प्रभुतानो अधिकार तारामां छे, परमां तारी प्रभुता नथी; तारी प्रभुताने तुं तारामां ज जो.
तारा द्रव्यनी त्रिकाळी प्रभुतामां तो विकार नथी, पण क्षणिक पर्यायनी प्रभुताथी तुं विकार करे छे तेथी तारा
द्रव्यनी प्रभुता बतावीने ते विकारनो निषेध करीए छीए. तारा स्वभावमां परनो अभाव तो सहज छे ज,
अने तारा द्रव्यस्वभावमां विकारनो पण अभाव छे; जो तुं ते स्वभावनी द्रष्टि कर तो विकारनो निषेध थाय छे.
माटे स्वभावद्रष्टि करावीने विकारनो निषेध कराववानी आ वात छे.
पर चीज तो ताराथी सदाय जुदी ज छे तेथी तेने दूर के नजीक करवानुं तारे कांई बळ करवुं पडतुं
नथी. तारी पर्यायमां विकारी भाव तारा ऊंधा प्रयत्नथी थाय छे तेनो निषेध तारा ज्ञायकस्वभावना
बळथी थाय छे. आम बताववा माटे अमे विकारने व्यवहारथी तारो कहीए छीए. कांई तेनो आश्रय
करीने अटकवा माटे तेने व्यवहार नथी कह्यो, पण तेनो आश्रय छोडावीने ज्ञायकस्वभावनो आश्रय
कराववा माटे तेने व्यवहार कह्यो छे.
आत्मा ज्ञायक छे–ते निश्चय छे. निश्चयथी आत्मा शुद्ध ज्ञायक छे एम कहेतां ज तेमां रागादिरूप चारे