Atmadharma magazine - Ank 100
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः ७८ः आत्मधर्मः १००
प्रकारना व्यवहारनो निषेध आवी गयो. राग थाय तेमां व्यवहारे आत्मानी पर्यायनी प्रभुता छे पण ते राग
जीवनुं मूळ स्वरूप नथी तेथी तेने असद्भूत व्यवहार कहीने तेनो निषेध कर्यो. हवे, ज्ञानमां राग जणातां कोईने
एम प्रश्न थाय के रागनो निषेध करवा छतां ज्ञानमां राग जणाय छे तो खरो!–तो कहे छे के ज्ञान रागने जाणे
छे एम कहेवुं ते पण व्यवहार छे, खरेखर तो ज्ञान ज्ञानने ज जाणे छे. ज्ञान रागनुं नथी पण ज्ञान ज्ञाननुं ज
छे–एम निश्चय कहीने उपचरित सद्भूत व्यवहारनो पण निषेध कर्यो. प्रथम तो पर्यायमां ते ते प्रकारनो
व्यवहार छे एम जे जाणे ते जीव निश्चयना आश्रये ते व्यवहारनो निषेध करे. पण पर्यायमां व्यवहार छे एटलुं
पण जे न जाणे तेने तो ते व्यवहारनो आश्रय छोडीने निश्चयनो आश्रय करवानुं अने व्यवहारनो निषेध
करवानुं कांई रहेतुं नथी.
छठ्ठी गाथामां आत्माने ज्ञायक कहेतां त्रण प्रकारना व्यवहारनो निषेध थयो. तेनो निषेध करतां
‘पर्यायमां ते छे’ एम व्यवहारनी कबूलात आवी जाय छे, पण निश्चय ज्ञायकभावनी द्रष्टि करतां ते व्यवहारनो
निषेध थई जाय छे.
(४) अनुपचरित सद्भूत व्यवहार अने तेनो निषेध
छठ्ठी गाथामां बाकी रही गयेला अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनो निषेध करवा माटे आचार्यदेवे सातमी
गाथा लीधी छे. एकरूप शुद्ध ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि करवा छतां साधकने पर्यायमां हजी राग–द्वेष पण रहे छे केम
के आत्मामां कथंचित् गुणगुणीभेद छे. आ गुणगुणीभेदने लक्षमां लेवो ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय छे.
परमार्थे ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे, तेनामां निश्चयथी ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेद पण विद्यमान नथी.
गुणगुणीभेदना लक्षे अभेद आत्मानो अनुभव थतो नथी, तेथी ते गुणगुणीभेदरूप अनुपचरित सद्भुत
व्यवहारनो पण निषेध करीने एक निश्चय ज्ञायकभाव ज आदरवा जेवो छे.–आम बतावीने ते विषय
आचार्यदेव पूरो करशे.
चारित्र, दर्शन, ज्ञान पण व्यवहार–कथने ज्ञानीने;
चारित्र नहि, दर्शन नहि, नहि ज्ञान, ज्ञायक शुद्ध छे. ७.
ज्ञान दर्शन–चारित्रना भेदथी आत्माने ओळखाववो ते पण व्यवहार छे. आ गाथामां शुद्ध
ज्ञायकभाव बतावीने ते व्यवहारनो पण निषेध कर्यो छे. एकरूप ज्ञायकभाव छे ते निश्चय छे, ते
ज्ञायकस्वभावमां विकार के भेद नथी. परंतु पर्यायमां विकार अने भेद छे, ते व्यवहार छे; ते व्यवहारना
चार प्रकार छे. जेणे निश्चयस्वभावनो आश्रय प्रगट करीने ते व्यवहारनो निषेध कर्यो छे एवा साधकने
व्यवहारनुं यथार्थ ज्ञान होय छे.
(१) साधक जाणे छे के हजी मारी पर्यायमां विकार थाय छे. तेमां जे प्रगट ख्यालमां पकडी शकाय छे
एवा बुद्धिपूर्वकना विकारने आत्माने जाणवो ते उपचरितअसद्भूत व्यवहारनय छे.
(२) जे वखते बुद्धिपूर्वकनो विकार छे ते वखते पोताना ख्यालमां न आवी शके एवो अबुद्धिपूर्वकनो
विकार पण छे; तेने जाणवो ते अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय छे.
(३) ज्ञातास्वभावना भानपूर्वक ज्ञानी विकारने पण जाणे छे; त्यां, ‘ज्ञानमां विकार जणाय छे’ एम
कहेवुं ते उपचरितसद्भूत व्यवहारनय छे. अने–
(४) साधकने रागरहित ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि थई होवा छतां हजी पर्यायमां राग पण थाय छे;
ज्ञायकस्वभावनी श्रद्धामां रागनो निषेध थयो होवा छतां, गुणभेदने कारणे चारित्रनी पर्यायमां हजी राग थाय
छे.–आवा गुणभेदथी आत्माने जाणवो ते अनुपचरितसद्भूत व्यवहारनय छे.
‘आत्मा ज्ञायक छे’ एम अभेद आत्माने लक्षमां लेवो ते निश्चयनय छे. ते निश्चयने लक्षमां लेतां
उपरना चारे प्रकारना व्यवहारनो निषेध थई जाय छे. तेमांथी पहेला त्रण प्रकारोनो निषेध छठ्ठी गाथामां
आव्यो, अने चोथा प्रकारना व्यवहारनो निषेध सातमी गाथामां आव्यो.
आत्मा परथी तो तद्न भिन्न छे, पर साथे तो तेने कांई संबंध नथी. आत्माथी भिन्न पदार्थने आत्माना
मानवा अथवा आत्मा तेनुं कांई करे एम मानवुं तेने तो नयाभास कहीने मिथ्यानयमां ज गण्या छे. ‘तद्गुण
संविज्ञान’ एटले के वस्तुना पोताना भावने ज वस्तुनो जणावे तेने ज नय गण्यो छे. आत्मानो व्यवहार
आत्माना भावमां होय, आत्माथी बहारना पदार्थमां आत्मानो व्यवहार न होय. तेथी अहीं, आत्मामां जे