Atmadharma magazine - Ank 100
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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माघः २४७८ः ६९ः
देहथी भिन्न ज्ञानमूर्ति छे, आत्मा परनो अकर्ता छे’–वाणी एम वाणी द्वारा तेनुं कथन थई शके छे, अने तेनाथी
आत्मा वाच्य थाय एवो आत्मानो एक धर्म छे. जडमां आत्मानो धर्म नथी पण जडथी वाच्य थाय तेवो तेनो
धर्म छे. वाणी जड छे ने आत्मा चेतन छे, माटे वाणीथी आत्मा कोई रीते वाच्य न ज थाय–एम नथी. जो
वाणीथी आत्मानुं स्वरूप कही शकातुं न होय तो संतोए करेली शास्त्ररचना निरर्थक ठरे, अने पोताने जेवो
आत्मानो अनुभव थयो तेवो बीजाने कोई रीते समजावी शकाय ज नहि. जो के वाणी तो मात्र निमित्त छे पण
आत्मामां तेवो धर्म छे के वाणी द्वारा ते वाच्य थाय.
जुओ, अहीं नामनये आत्मा वाणीथी वाच्य छे–एम कह्युं, अने ‘अपूर्व अवसर’ मां श्रीमद् कहे छे केः
‘जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शकया नहि ते पण श्री भगवान जो......
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.’
–त्यां तो वाणीना लक्षे ज रोकाय तो आत्मा समजातो नथी एम बताववा कह्युं छे. वाणीनुं आलंबन
छोडावीने आत्माना स्वभावनो अनुभव करवा माटेनुं ते कथन छे. सर्वज्ञनी वाणीमां पण आत्मा पूरो कही
शकायो नहि माटे तुं वाणीनुं लक्ष छोडीने आत्मा तरफ वळ–एम बताववा ते कथन छे.
अहीं पण धर्मने जाणीने आत्मा तरफ वळवुं ते ज तात्पर्य छे. ‘वाणीथी वाच्य थाय एवो धर्म छे’ एम
कहीने वाणीनी सामे जोवानुं नथी कह्युं, पण वाणीथी वाच्य थवारूप धर्मने तारा आत्मामां शोध, तारा
आत्मानी सन्मुख थईने आ धर्मनी प्रतीत कर. शब्द सामे जोवाथी आ धर्मनी प्रतीत नहि थाय.
जे जीवो कथननो आशय समजे नहि, वस्तुस्वरूप शुं छे ते लक्षमां ल्ये नहि ने मात्र शब्दोनी
आंटीघूंटीमां गूंचवाई जाय तेने शास्त्रमां ‘शब्दमलेच्छ’ कह्या छे. चैतन्यब्रह्म आत्माने समजे तो निमित्तरूप
वाणीने शब्दब्रह्म कहेवाय. वाणीमां चैतन्यने कहेवानी ताकात छे तेथी ते शब्दब्रह्म छे,–पण कोने?–के जे समजे
तेने. जे वाणीनो आशय समजे नहि तेने तो वाणी निमित्त तरीके पण आत्माने देखाडनारी न थाय. आत्माने
समजे तेने माटे शब्दब्रह्म निमित्त छे, जे आत्माने समजे नहि ने शब्दमां अटके ते तो ‘शब्दमलेच्छ’ छे.
पोतानी योग्यता न होय तो वाणी शुं करे? पोते अंतर स्वभावसन्मुख थईने समजे तो तेने माटे वाणी
‘शब्दब्रह्म’ कहेवाय, ने जे पोते न समजे ने वाणीना लक्षमां ज अटके तेने शब्दमलेच्छ कहेवाय छे. वाणीना
लक्षे पुण्य बंधाशे, पण सम्यग्दर्शन ज्ञानरूप धर्म नहि थाय.
जुओ, आ नयोनुं कथन छे. जे नय सापेक्ष होय एटले के बीजा अनंत धर्मोनी अपेक्षासहित होय ते ज
नय सम्यक् छे. बीजा अनंत धर्मोनो सर्वथा निषेध करीने एक धर्मने माने तो ते मिथ्यानय छे. नामनये आत्मा
वाणीथी वाच्य छे–एम कहेतां मात्र वाणीने ज वळगे तो तेणे अनंतधर्मवाळा आत्माने जाण्यो नथी, ने तेणे
एक धर्मनुं पण ज्ञान साचुं नथी. नामनयनुं तात्पर्य वाणीनो आश्रय करवानुं नथी पण अनंतधर्मवाळा आत्मा
तरफ वळवुं ते ज तेनुं तात्पर्य छे.
जैनशासन सिवाय बीजा मतमां आत्माने सर्वथा नित्य के सर्वथा क्षणिक, सर्वथा शुद्ध के सर्वथा अशुद्ध
माने छे, तेमने नय कहेवाय नहि. एकेक नय अपेक्षाए पण ते साचा नथी, केम के तेओ तो बीजा पडखांनो
तद्न निषेध करे छे; एटले तेमणे तो पूरी वस्तुने ज जाणी नथी, तेथी तेमनो एक अंश पण साचो नथी.
जैनशासनमां तो अनंतधर्मात्मक सर्वांग–पूरी वस्तुना स्वीकारपूर्वक तेना एकेक अंगने (धर्मने) जाणे छे तेथी
ते सम्यक् नय छे. अंश कोनो छे? ते वस्तुना भान विना अंशने अंश तरीके पण जाण्यो न कहेवाय.
मिथ्याद्रष्टिओना एकांत मतमां तो सर्वांगी वस्तुने जाण्या वगर मात्र तेना एकेक अंशने पकडीने तेटलुं ज
वस्तुस्वरूप मानी लीधुं छे, तेथी तेने अंशनुं ज्ञान पण साचुं नथी ने वस्तुनुं पण ज्ञान नथी.
हे भाई! शब्दथी वाच्य थवारूप धर्म तो आत्मानो छे, ने ते धर्मनी साथे बीजा अनंतधर्मो पण
आत्मामां रहेला छे, माटे तुं शब्द सामे न जो, एक धर्मना भेद सामे न जो, पण अनंतधर्मना पिंड आत्मानी
सामे