देहथी भिन्न ज्ञानमूर्ति छे, आत्मा परनो अकर्ता छे’–वाणी एम वाणी द्वारा तेनुं कथन थई शके छे, अने तेनाथी
आत्मा वाच्य थाय एवो आत्मानो एक धर्म छे. जडमां आत्मानो धर्म नथी पण जडथी वाच्य थाय तेवो तेनो
धर्म छे. वाणी जड छे ने आत्मा चेतन छे, माटे वाणीथी आत्मा कोई रीते वाच्य न ज थाय–एम नथी. जो
वाणीथी आत्मानुं स्वरूप कही शकातुं न होय तो संतोए करेली शास्त्ररचना निरर्थक ठरे, अने पोताने जेवो
आत्मानो अनुभव थयो तेवो बीजाने कोई रीते समजावी शकाय ज नहि. जो के वाणी तो मात्र निमित्त छे पण
आत्मामां तेवो धर्म छे के वाणी द्वारा ते वाच्य थाय.
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.’
आत्मानी सन्मुख थईने आ धर्मनी प्रतीत कर. शब्द सामे जोवाथी आ धर्मनी प्रतीत नहि थाय.
वाणीने शब्दब्रह्म कहेवाय. वाणीमां चैतन्यने कहेवानी ताकात छे तेथी ते शब्दब्रह्म छे,–पण कोने?–के जे समजे
तेने. जे वाणीनो आशय समजे नहि तेने तो वाणी निमित्त तरीके पण आत्माने देखाडनारी न थाय. आत्माने
समजे तेने माटे शब्दब्रह्म निमित्त छे, जे आत्माने समजे नहि ने शब्दमां अटके ते तो ‘शब्दमलेच्छ’ छे.
पोतानी योग्यता न होय तो वाणी शुं करे? पोते अंतर स्वभावसन्मुख थईने समजे तो तेने माटे वाणी
‘शब्दब्रह्म’ कहेवाय, ने जे पोते न समजे ने वाणीना लक्षमां ज अटके तेने शब्दमलेच्छ कहेवाय छे. वाणीना
लक्षे पुण्य बंधाशे, पण सम्यग्दर्शन ज्ञानरूप धर्म नहि थाय.
वाणीथी वाच्य छे–एम कहेतां मात्र वाणीने ज वळगे तो तेणे अनंतधर्मवाळा आत्माने जाण्यो नथी, ने तेणे
एक धर्मनुं पण ज्ञान साचुं नथी. नामनयनुं तात्पर्य वाणीनो आश्रय करवानुं नथी पण अनंतधर्मवाळा आत्मा
तरफ वळवुं ते ज तेनुं तात्पर्य छे.
तद्न निषेध करे छे; एटले तेमणे तो पूरी वस्तुने ज जाणी नथी, तेथी तेमनो एक अंश पण साचो नथी.
जैनशासनमां तो अनंतधर्मात्मक सर्वांग–पूरी वस्तुना स्वीकारपूर्वक तेना एकेक अंगने (धर्मने) जाणे छे तेथी
ते सम्यक् नय छे. अंश कोनो छे? ते वस्तुना भान विना अंशने अंश तरीके पण जाण्यो न कहेवाय.
मिथ्याद्रष्टिओना एकांत मतमां तो सर्वांगी वस्तुने जाण्या वगर मात्र तेना एकेक अंशने पकडीने तेटलुं ज
सामे