ः ७०ः आत्मधर्मः १००
जो. वाणी उपरथी लक्ष उठावीने तारा धर्मने तारा आत्मामां शोध. वाणी सामे न जोतां तेना वाच्यने जो.
वाणीथी वाच्य थाय तेवो धर्म तारामां ज छे, तारो धर्म कांई वाणीमां नथी.
शब्द छे माटे आत्मा वाच्य थाय छे–एम नथी; अने आत्मामां वाच्य थवानो धर्म छे माटे वाणी तेने
कहे छे–एम नथी; आत्माना धर्मने अने वाणीने कारणकार्यपणुं नथी. वाच्य थवारूप धर्म आत्मानो छे, ने
वाचक थवारूप धर्म वाणीनो छे. बंने स्वतंत्र छे.
नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव एवा जे चार नयो छे ते तो ज्ञान छे, तेमना विषयभूत जे चार धर्मो
छे ते निक्षेप छे, अने शब्दो तो जड छे. नय ते ज्ञान छे, निक्षेप ते वस्तुनो धर्म छे ने वाणी जड छे,–एम ज्ञान,
पदार्थ अने वाणी एवा त्रण प्रकार थया.
नय प्रमाणपूर्वक ज होय छे. आखी वस्तुना ज्ञानपूर्वक तेना एक अंशने जाणे तेने नय कहेवाय. पण
आखी वस्तुना ज्ञान विना तेना एक अंशने ज आखुं स्वरूप मानी ल्ये तो तेणे अंशने अंश तरीके न जाण्यो,
तेथी तेनुं अंशनुं ज्ञान पण मिथ्या छे. जेम कोई माणस एक पाईने ज आखो रूपियो मानी ल्ये तो तेनुं पाईनुं
ज्ञान पण खोटुं छे.
प्रश्नः– पाई ते रूपियानो १९२मो भाग छे, माटे तेटला अंशे तो ते साचो छे ने?
उत्तरः– ना; तेणे तो पाईने ज रूपियो मान्यो छे माटे तेनो अंश पण साचो नथी. पाई ते रूपियो नथी
पण रूपियानो एक अंश छे–एम जाणे तो तेनो अंश साचो कहेवाय. तेम कोई जीवो वस्तुने एकांत नित्य माने
तो तेनो नित्य–अंश पण साचो नथी. केम के तेणे तो नित्य–अंशने ज वस्तु मानी लीधी एटले तेने अंश
अंशपणे न रह्यो ने वस्तु पण न रही; वस्तु अनंतधर्मवाळी छे ने नित्यपणुं पण तेनो एक धर्म छे–एम
ओळखे तो ज नित्य–अंश साचो कहेवाय, अने तेने ज नय होय.
प्रश्नः– नयज्ञान स्व–परप्रकाशक छे के नहि?
उत्तरः– हा; नयज्ञान पण स्व–परप्रकाशक छे, केम के नय ते प्रमाणनो अंश छे तेथी, जेम प्रमाण
स्वपरप्रकाशक छे तेम नय पण स्व–परप्रकाशक छे.
प्रश्नः– नय स्व–परप्रकाशक कई रीते छे?
उत्तरः– नय आत्माना धर्मने पण जाणे छे ने पोते पोताने (नयने) पण जाणे छे. नय पोताना
विषयरूप धर्मने जाणे छे अने ‘मने आ धर्मनुं ज्ञान थयुं’ एम ज्ञानने पोताने पण जाणे छे–ए रीते नय स्व–
परप्रकाशक छे. अहीं नयज्ञान पोते स्व, अने तेमां जे धर्म जणाय ते पर,–एम स्व–परनो अर्थ छे. ए रीते
नयज्ञान पण स्व–परप्रकाशक उपयोगरूप छे. दरेक नयो स्व–परप्रकाशक छे, आवुं नयनुं सामर्थ्य छे. वाणीमां
स्वने के परने जाणवानुं सामर्थ्य नथी. वाणी द्वारा कहेवाता धर्मने जोवो कयां?–आत्मामां; माटे दरेक नयनो
उपयोग स्वतरफ वळे छे.
आ नयो गूंचवण ऊभी करनारा दोरडां नथी, पण वस्तुना धर्मोनुं ज्ञान करावीने वस्तुस्वरूप स्पष्ट
करनारा छे. नयोनी विवक्षा समजवी तेमां ज्ञाननी सूक्ष्मता अने विशाळता छे. न समजे तेने गूंचवण जेवुं अने
किलष्ट लागे छे. आ समजवानो कंटाळो न लावतां, रुचिथी समजवानो प्रयत्न करवो जोईए.
जेम आखा सळंग ताकामांथी वच्चेनो एक दोरो काढी नांखो तो ताको आखो न रह्यो पण तेना कटका
थई गया. तेम आत्मा अनंतधर्मनो पिंड छे, तेना अनंतधर्ममांथी एक पण धर्मने जो कोई काढी नांखे (न
माने) तो आत्मद्रव्य आखुं न रह्युं पण खंडित थई गयुं, एटले के तेनी श्रद्धामां पूरो आत्मा न आव्यो तेथी
तेनी श्रद्धा ज मिथ्या थई.
छद्मस्थना ज्ञानमां अनंतधर्म जुदा जुदा न जणाय; साधक जीव पोताना ज्ञाननी शक्ति प्रमाणे
प्रयोजनभूत धर्मोने तो ओळखे छे अने बाकी बीजा अनंता धर्मो सर्वज्ञभगवाने कह्या ते प्रमाणे छे–एम प्रतीत
करे छे; जो अनंतधर्मोनी प्रतीत पण न करे अने प्रयोजनभूत धर्मोने जाणे पण नहि–तो तो श्रद्धा–ज्ञान साचां
थाय नहि.
अहीं आचार्यदेवे प्रथम तो आत्माने अनंतधर्मवाळो बताव्यो छे ने पछी तेना ४७ धर्मोनुं ४७ नयोथी
वर्णन कर्युं छे. तेमां बार धर्मो उपरनुं विवेचन पूरुं थयुं. हवे तेरमो धर्म कहेवाशे.
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