Atmadharma magazine - Ank 101
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः ९६ः आत्मधर्मः १०१
अने एलक एवा बे प्रकार छे. ते क्षुल्लक के एलकने पोताने माटे करेलो आहार लेवानी वृत्ति न ऊठे. तेने रोग
थयो होय ने तेने माटे कोई खास आहारादि बनावे तो ते ल्ये नहि. तेने ते आहार लेवानो भाव ज न आवे, एवी
चैतन्यना आश्रये शुद्धता वधी गई छे. शुद्धता वधतां राग छूटयो त्यां उदिष्ट आहारने छोडयो एम निमित्तथी
कहेवाय छे. खरेखर आहार छूटयो ते तो निमित्तना कारणे स्वयं छूटयो छे, आत्माए तेने छोडयो नथी.
अगियार पडिमानी वस्तुस्थिति आवी छे. तेमां पहेली छ पडिमावाळा जघन्य श्रावक छे; सात–आठ–नव
पडिमावाळा मध्यम श्रावक छे अने दस–अगियार पडिमावाळा उत्तम श्रावक छे. पण ए खास ध्यान राखवायोग्य
छे के आ पडिमाओ सम्यग्दर्शनपूर्वक ज होय छे. सम्यग्दर्शनपूर्वक चैतन्यना आनंदनो अनुभव वधतां हठ वगर
सहजपणे आवी पडिमाओ होय छे. जुओ, श्रावकनी आवी दशा होय छे. तेनुं नाम भक्ति छे, तेनुं नाम
रत्नत्रयनी आराधना छे अने ते श्रावकोनो धर्म छे; ते सिवाय रागमां धर्म नथी, तेम ज बहारनां पदार्थोनुं तो
ग्रहण के त्याग आत्मा करी शकतो ज नथी. आत्मामां ‘त्यागोपादान शून्यत्व’ नामनो धर्म छे एटले आत्मा
परनुं ग्रहण के त्याग करतो नथी. आवा आत्माना भानपूर्वक हठ विनानी वीतरागी दशा प्रगटे त्यां आवी पडिमा
होय छे. हठ करीने बहारमां त्याग करे तेथी कांई पडिमा थई जती नथी शुद्ध स्वभावमां अंतर्मुख वलणथी जेम
जेम गुणनी शुद्धता प्रगटती जाय छे तेम तेम आवी वीतरागी पडिमा श्रावकने प्रगटती जाय छे.
आ रीते जे वीतरागीपर्यायने भजे ते श्रावक भक्त छे, ते रत्नत्रयनो आराधक छे. स्वभावना आश्रये
जेटली गुणनी निर्मळता थाय छे तेटली पडिमा कायम होय छे; त्यां गुणनी शुद्धि अनुसार रागनो त्याग अने
तेना निमित्तोनो त्याग होय छे. अंतरमां शुद्धरत्नत्रयनी आराधना वगरना व्रत–तप त्याग अने पडिमा ए तो
बधांय बाळव्रत, बाळतप, बाळत्याग ने बाळपडिमा छे; ‘बाळ’ एटले मूर्खाई भरेलां–अज्ञानीनां व्रत–तप–
त्याग–पडिमा छे. चैतन्यस्वभावनुं भान करीने श्रावक रत्नत्रयने जेटलो भजे छे तेटली भक्ति छे अने तेटलो
धर्म छे, तेने ज शुद्धता अनुसार यथार्थ पडिमा वगेरे होय छे.
श्रावकनी पडिमानुं आवुं स्पष्ट वर्णन आ पहेली ज वार व्याख्यानमां आव्युं छे. *
पं..... चा..... मृ..... त
१. आत्मज्ञानीनी सेवा
(देशनालब्धिनो नियम)
समयसारनी चोथी गाथामां श्री आचार्यदेव कहे छे के आत्माने जाणनाराओनी संगति–सेवा–उपासना पूर्वे
कदी करी नथी.–आम कहीने अहीं अपूर्व देशनालब्धि सिद्ध करवा मांगे छे. पूर्वे शुद्धात्माना शब्दो तो काने पडया पण
तेने शुद्धात्माना श्रवण तरीके एटले के देशनालब्धि तरीके अहीं नथी स्वीकारतां. अहीं तो एवी ज देशनालब्धि
लीधी छे के जे देशनालब्धि मळ्‌या पछी जीव पाछो न फरे. अने ए देशनालब्धि आत्मज्ञानी पासेथी ज मळे छे–एवो
नियम बताववा अहीं आत्मज्ञानीनी सेवा–संगति करवानी वात मूकी छे. जो अज्ञानीना उपदेशथी पण अनादि
मिथ्याद्रष्टिने देशनालब्धि थई जती होय तो ‘आत्मज्ञानीनी सेवा’ नी वात शा माटे करे? आचार्यदेव कहे छे के
जीवोने भिन्न आत्मानुं एकपणुं ज पूर्वे कदी सांभळवामां, परिचयमां के अनुभवमां आव्युं नथी;–केम? के पोतामां
अनात्मज्ञपणुं होवाथी, अने बीजा आत्माने जाणनाराओनी संगति –सेवा नहि करी होवाथी. अहीं अनादि
अज्ञानीने ज्ञानी बनाववा माटे वात लीधी छे, तेथी देशनालब्धि ज्ञानी पासेथी ज मळे–ए वात मूकी छे. आ
संबंधमां अत्यारे घणी गरबड चाली रही छे, पण आचार्यदेवे स्पष्ट वात करी छे ते विचारता नथी.
समयसार गा. ४ उपरना प्रवचनमांथीः अषाड सुद१ २४७६
२ः पर्यायमूढ परसमय छे,
(नामथी जैन पण भावथी बौद्ध)
आत्मा अनंत धर्मोथी अभेदरूप नित्य टकनारुं द्रव्य छे; ते नित्य आत्माना आश्रये निर्मळदशा प्रगटे
छे–एम न मानतां जे क्षणिक पर्यायना आश्रये निर्मळदशा प्रगटवानुं माने छे ते जीव पर्यायमूढ छे, ते बौद्धमति
जेवो छे. वस्तु तो द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूप छे; तेमां त्रिकाळी द्रव्य–गुणना आश्रये नवी नवी पर्यायो प्रगटे छे.–
जो आम जाणे तो तो पर्याय द्रव्य तरफ वळी जाय, एटले के द्रव्यनो आश्रय करीने पर्याय निर्मळपणे परि–