णमे; अनंत धर्मोथी अभेद एवा धु्रव द्रव्यना आश्रये अवस्था प्रगटवानुं न मानतां, पर्यायमांथी पर्याय प्रगटे के
निमित्तथी प्रगटे–एम जे माने छे ते जीवे वस्तुने द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूप नथी मानी पण क्षणिक पर्यायने ज
वस्तु मानी छे, एटले ते क्षणिकवादी बौद्ध जेवो छे,–ते पर्यायमूढ मिथ्याद्रष्टि छे. व्यवहार (शुभराग) करतां
करतां निश्चय प्रगटे–एवी जेनी मान्यता छे ते पण पर्यायमूढ छे. जे जीव धु्रव आत्मस्वभावनो आश्रय करे छे
ते ज सम्यग्द्रष्टि छे, ने ते स्वसमय छे. जेनी द्रष्टि पर्याय उपर छे एटले के पर्यायना आश्रयथी जे लाभ माने छे
ते जीव, नामथी भले जैन होय पण भावथी तो बौद्ध छे.
करती जागी ने चारे गतिना कारणने मूळमांथी उखेडती प्रगट थई त्यां परिभ्रमण टळी गयुं ने अंशे मुक्तिनी
पर्याय प्रगट थई. साची समजणे अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश कर्यो छे. मारो आत्मा ज्ञाता–द्रष्टा वीतरागी
स्वभाव ज छे–एम ज्ञानमां स्वीकारती ज्ञानज्योति सारी रीते सज्ज थई छे.
ज्ञानज्योति प्रगटी ते प्रगटी, हवे अखंडधाराए केवळज्ञान सुधी पहोंची ज जवानी; ज्ञानज्योति एवी सज्ज
थई के ज्ञान–आनंद करती केवळज्ञान–समुद्रमां भळी जवानी.–एवो तेनो फेलाव तेने कोई आवरी शके नहि,
रोकी शके नहि; चैतन्यनी ज्ञानज्योति जागी तेने रोकवाने–आवरवाने समर्थ आ जगतमां कोई पदार्थ नथी,
कोई पदार्थनो एवो गुण नथी के कोई पदार्थनी एवी पर्याय नथी. जागनार जागे तेने आवरण करनार त्रणकाळ
त्रणलोकमां कोईनी शक्ति नथी.
अरे आत्मा! तुं जाग.....तुं जागीने जो तो तारा स्वभावमां बंधन छे ज नहि.–एम भान थतां द्रव्यबंध
रहेतो नथी, त्यारे पछी ज्ञानने आवरण करनारुं कोई रहेतुं नथी, ते ज्ञान सदा प्रकाशमान ज रहे छे.
नथी; भगवान आत्मा तो एक ज्ञायकभाव छे ते शुभ–अशुभ भावोपणे परिणमतो ज नथी. पर्यायमां व्यवहार
होवा छतां स्वभावद्रष्टिथी जोईए तो ज्ञायकभाव ते–पणे परिणमतो नथी.–आवो ज्ञायकभाव छे तेनो ज्यां
निर्णय कर्यो त्यां पर्याय अंतरमां अभेद थई ने शुद्धता प्रगटी. आनुं नाम ज्ञायकभावनी उपासना छे. आ रीते
ज्ञायकभावनी उपासनाथी ज क्रमेक्रमे शुद्धता वधती जाय छे. अहीं पंचपरमेष्ठीनी के शुभरागनी उपासना
करवानुं न कह्युं, केम के पंचपरमेष्ठी तो पोताथी पर छे अने शुभराग विकार छे ते कोईना आश्रये आत्माने
शुद्धपणुं के मोक्षमार्ग प्रगटतो नथी. एकरूप ज्ञायकस्वभावना आश्रये ज शुद्धपणुं ने मोक्षमार्ग प्रगटे छे, तेथी
एक ज्ञायकभावनी उपासना करवानुं ज कह्युं छे. द्रव्यद्रष्टिथी ज्ञायकभाव तो सदा ज्ञायक ज छे. ‘हुं ज्ञायक छुं’
एम स्वभावद्रष्टि वडे निर्णय करीने तेमां ठर्यो त्यारे ते आत्माने ‘शुद्ध’ कहेवाय छे. ज्ञायकभावमां पर्याय अभेद
थईने शुद्ध थई तेथी ते आत्माने ‘शुद्ध’ कह्यो.–आनुं नाम ज्ञायकभावनी उपासना छे.
पर्याये तेने स्वीकार्यो ते पर्यायमां शुद्धता थई गई; पण ते पर्याय उपर सम्यग्दर्शननी द्रष्टि नथी, एकरूप
ज्ञायकभाव