Atmadharma magazine - Ank 101
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४७८ः ९९ः
“अहो, शुद्धात्म–प्राप्तिनी दुर्लभता!”
हे जीव! शुद्धात्मानी रुचि प्रगट करीने एकवार साचो श्रोता बन!
अनंतकाळथी संसारमां रखडता जीवोने शुद्ध आत्मानी समजण दुर्लभ छे एम बतावतां श्री आचार्यदेव
समयसारनी चोथी गाथामां कहे छे के (१) कामभोग–बंधननी कथा तो सर्व जीवोने सांभळवामां आवी गई
छे; पण (२) भिन्न आत्माना एकत्वनी वात जीवे कदी सांभळी नथी. तेमांथी न्यायः
(१) निगोदमां एवा अनंत जीवो छे के जेमणे कदी मनुष्यभव कर्यो ज नथी, जेओ कदी
निगोदमांथी नीकळ्‌या ज नथी, जेमने कदी श्रवणेन्द्रिय ज मळी नथी, तो तेमणे कई रीते काम–भोगनी कथा
सांभळी? श्री आचार्यदेव कहे छे के ते जीवोए शब्दो भले न सांभळ्‌या होय, परंतु काम–भोगनी कथाना
श्रवणनुं जे कार्य छे तेने तो तेओ करी ज रह्या छे, शब्दो न सांभळवा छतां तेना भाव प्रमाणे ऊंधुंं वर्तन
तो तेओ करी ज रह्या छे; काम–भोगनी कथा सांभळनारा अज्ञानी जीवो जे (विकारनो अनुभव) करी
रह्या छे अने कही रह्या छे तेवुं ते जीवो कथा सांभळ्‌या वगर पण करी ज रह्या छे, माटे तेमणे पण काम–
भोग–बंधननी कथा सांभळी छे एम आचार्यदेवे कह्युं. शुद्धात्माना भान वगर अनंतवार नवमी
ग्रैवेयकना भव करनारो जीव, अने बीजो नित्यनिगोदनो जीव–ए बंने एक ज जातना छे, बंने
अशुद्धआत्मानो ज अनुभव करी रह्या छे. निगोदना जीवने श्रवणनुं निमित्त मळ्‌युं नथी अने नवमी
ग्रैवेयक जनार जीवने श्रवणनुं निमित्त मळवा छतां तेनुं उपादान सुधर्युं नथी माटे तेणे शुद्धात्मानी वात
सांभळी एम अहीं अध्यात्मशास्त्रमां गणता नथी. काम–भोगनी कथा तो निमित्त छे, ते सांभळवानुं फळ
शुं?–के विकारनो अनुभव; ते विकारनो अनुभव तो निगोदनो जीव करी ज रह्यो छे, माटे ते जीवे काम–
भोगनी कथा सांभळी छे.
(२) उपरना निगोदना जीव करतां ऊलटी वात; अज्ञानी जीवे अनंतवार तीर्थंकर भगवानना
समवसरणमां जईने तेमना दिव्यध्वनिमां शुद्धात्मानी वात सांभळी छतां अहीं आचार्यभगवान कहे छे के
आत्माना शुद्ध स्वभावनी वार्ता ते जीवोए कदी सांभळी नथी. केम के अंतरनी रुचिथी तेनुं परिणमन कर्युं नथी,
शुद्धात्मानो अनुभव कर्यो नथी माटे तेणे शुद्धात्मानी वात सांभळी पण नथी. शुद्धात्मानुं श्रवण कर्युं एम तो
त्यारे कहेवाय के जो तेनो आशय समजी ते–अनुसार परिणमे! एटले भावपूर्वकना श्रवणने ज अहीं श्रवणमां
गण्युं छे. निमित्त साथे उपादानना भावनो मेळ थाय तो ज ते निमित्त कहेवाय. अनादिथी काम–भोग–बंधननी
कथाना निमित्तो साथे जीवना उपादाननो मेळ थयो छे, परंतु शुद्धज्ञायक–एकत्व–विभक्त आत्मस्वरूपने
बतावनार निमित्त साथे तेना उपादाननो मेळ थयो नथी माटे तेणे शुद्ध आत्मानी वात सांभळी पण नथी.
अहीं तो उपादान–निमित्तनी संधिपूर्वक कथन छे; निमित्त तरीके एवा अपूर्व श्रवणने स्वीकार्युं छे के जेवुं श्रवण
कर्युं तेवी रुचि अने अनुभव पण करे ज.
भले भगवाननी सभामां दिव्यध्वनि सांभळतो होय, पण जो अंतरमां व्यवहारना पक्षनो आशय
राखे तो तेणे खरेखर शुद्धात्मानुं श्रवण नथी कर्युं, तेने माटे तो ते विकथानुं ज श्रवण छे. मात्र आत्माना
शब्दो काने पडया ते कांई शुद्धात्मानुं श्रवण नथी पण श्रवण परिचय अने अनुभव त्रणेनी एकता एटले
के जेवो शुद्धात्मा सांभळ्‌यो तेवो ज परिचयमां–रुचिमां लईने तेनो अनुभव करे एनुं नाम शुद्धात्मानुं
श्रवण छे, एवुं श्रवण जीवे पूर्वे कदी कर्युं नथी माटे हवे तुं शुद्धात्मानी रुचिना अपूर्वभावे आ समयसारनुं
श्रवण