Atmadharma magazine - Ank 101
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १०२ः आत्मधर्मः १०१
क्यांय दोष नहि ज आवे, पण व्याकरणनी विभक्ति वगेरेमां कदाच कंई दोष आवी जाय अने तारा ज्ञानना
क्षयोपशममां ते जणाई जाय तो तुं ते जाणपणा उपर के दोष उपर मुख्यपणे जोईश नहि, पण तेने गौण करीने
एकत्वस्वभावने ज मुख्यपणे जोजे, ते स्वभाव तरफ ज वळजे.
जुओ! आचार्यभगवंतने शुद्धात्मा दर्शाववानो विकल्प ऊठयो छे ते सामा शिष्यनी पण शुद्धात्मानो
अनुभव करवानी पात्रता सूचवे छे. ‘हुं दर्शावुं छुं अने तमे ते प्रमाण करजो’ एम आचार्यदेवे कह्युं तो सामे
ते शुद्धात्माने प्रमाण करनारा जीवो न होय एम बने ज नहि. ‘दर्शावुं तो करजो प्रमाण’ एम कहेवामां
आचार्यदेवने खातरी छे के शिष्ये पूर्वे अनंतकाळमां जे रीते शुद्धात्मानुं यथार्थ श्रवण नथी कर्युं ते भाव
टाळीने हवे जुदी ज रीते अपूर्वपणे शुद्धात्मानुं यथार्थ श्रवण करीने ते शुद्धात्माने समजी जशे. पूर्वे तें कदी
जेने नथी जाण्यो एवो शुद्धात्मा हुं तने अत्यारे दर्शावुं छुं, माटे तुं अपूर्व भावे ते प्रमाण करीने स्वानुभव
करजे.
आ रीते आ समयसारना सांभळनार अने कहेनार बंनेने शुद्धात्मा प्रत्येनी अपार होंश छे. ‘हुं शुद्ध
आत्मा बतावुं छुं अने तुं तेनी हा ज पाडीने तारा स्वानुभवथी प्रमाण करजे’–आम कहीने पछी तरत छठ्ठी
गाथामां श्री आचार्यदेव आत्मानो एकत्व–विभक्त ज्ञायकस्वभाव दर्शावे छे.
–श्री समयसार गाथा प उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी. वीर सं. २४६७ अषाड सुद २
***
श्री समयसारनी छठ्ठी गाथामां आत्माने ‘ज्ञायक’ कहीने १–उपचरितसद्भुत, २–अनुपचरितअसद्भुत
अने ३–उपचरितसद्भुत–ए त्रण प्रकारना व्यवहारनो निषेध कर्यो. छेल्ले गुणगुणीभेदरूप अनुपचरित
सद्भूत–व्यवहार बाकी रह्यो तेनो निषेध सातमी गाथामां कर्यो. ए रीते छठ्ठी–सातमी गाथामां
‘शुद्धज्ञायकभाव’ बतावीने तेना आश्रये चारे प्रकारना व्यवहारनो निषेध कर्यो. आ ‘ज्ञायकभाव’ ते निश्चय छे
अने तेनो आश्रय करवो ते मोक्षमार्ग छे.
भगवान श्री आचार्यदेव अखंडज्ञायकस्वरूपनो आश्रय करीने अप्रमत्त अने प्रमत्तभावरूप
मुनिदशामां वर्ती रह्या छे. क्षणमां विकल्प ऊठे छे अने वळी क्षणमां ते विकल्प तोडीने अभेदअनुभवमां
लीन थई जाय छे, ते वखते तो ‘प्रमत्त–अप्रमत्त नथी ने ज्ञायक छुं’ एवो विकल्प पण नथी, त्यां तो
ज्ञायकनो अनुभव ज वर्ते छे. आवी दशामां झूलतां झूलतां आ समयसारनी अद्भुत रचना थई गई छे,
तेमां अपूर्व गंभीर भावो भर्या छे. ‘समयसार’ एटले शुद्धआत्मा, तेना वर्णननी शरूआत करतां छठ्ठी
गाथामां ज ‘जे ज्ञायकभाव छे ते प्रमत्त के अप्रमत्त नथी’ एम कहीने ते एक गाथामां ज आचार्यदेवे चार
नयोनुं वर्णन समावी दीधुं छे. ते आ प्रमाणे–
(१) ‘हुं प्रमत्त–अप्रमत्त नथी’ एवो जे विकल्प ऊठे छे तेने जाणतां ‘आ विकल्प आत्मानो छे’ एम
लक्षमां लेवुं ते उपचरित–असद्भुत व्यवहार छे. अहीं आचार्यदेवे ‘प्रमत्त–अप्रमत्त नथी’ एम कहीने ते
व्यवहारनुं ज्ञान तो गर्भितपणे करावी दीधुं, अने ‘ज्ञायकभाव’ बतावीने तेनो निषेध पण कर्यो.
(२) ज्यां छद्मस्थने जणाय तेवो राग छे त्यां छद्मस्थने न जणाय तेवो राग पण होय ज छे; केम के
ज्यां बुद्धिपूर्वकनो राग होय त्यां ज्ञान एटलुं सूक्ष्म न ज होय के सूक्ष्ममां सूक्ष्म रागने पण पकडी शके. जे ज्ञान
रागमां जोडायेलुं छे ते ज्ञाननो उपयोग स्थूळ छे. जो अबुद्धिपूर्वकना रागने पण पकडी शके एवो सूक्ष्म उपयोग
थाय तो तो केवळज्ञान होय अने त्यां रागनो बिलकुल अभाव होय. अहीं तो साधकनी वात छे. साधकने जे
अबुद्धिपूर्वकनो विकल्प छे ते अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनयनो विषय छे. ‘ज्ञायकभाव अप्रमत्त पण नथी’
एम कहीने गर्भितपणे ते व्यवहारनुं ज्ञान करावीने तेनो निषेध कर्यो.
(३) ज्ञान परने जाणे छे–एम कहेवुं ते उपचरितसद्भुत व्यवहार छे; ‘ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे’ एम
कहीने ते व्यवहारनो पण निषेध कर्यो. व्यवहारनो निषेध करवामां ‘ते व्यवहार छे’ एम तेनुं ज्ञान तो