फागणः २४७८ः १०३ः
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श्री समयसारनी छठ्ठी–सातमी गाथामां आवी जता – व्यवहारना चार प्रकारो अने
निश्चयना आश्रये तेमनो निषेध
(आ विषयनो पहेलो हप्तो पूर्वे अपाई गयो छे, अहीं बीजो हप्तो आपवामां आव्यो छे.)
आवी जाय छे, केम के साधकने पोतानी पर्यायमां जे व्यवहार छे तेनो निषेध करे छे ने! जो व्यवहार बिलकुल
होय ज नहि तो तेनो निषेध करवानुं पण रहेतुं नथी.
(४) आत्माने ‘शुद्धज्ञायकभाव’ कहीने शुद्धनयनुं स्थापन कर्युं छे.
ए प्रमाणे एक ज गाथामां त्रण प्रकारना व्यवहार अने एक निश्चय एम चार प्रकार समाडी दीधा छे;
अने शुद्ध नयनो अभेद विषय बतावीने त्रणे प्रकारना व्यवहारनो निषेध कर्यो छे. जो के अहीं छठ्ठी गाथामां
आत्माने शुद्ध ज्ञायक कह्यो तेमां गर्भितपणे गुणगुणी भेदरूप व्यवहारनो निषेध पण आवी जाय छे; छतां
सातमी गाथामां तेनो स्पष्टपणे निषेध कर्यो छे. आ रीते समयसारमां सर्व प्रकारना व्यवहारनो निषेध करीने
अभेद ज्ञायक–स्वभावनी द्रष्टि कराववानो श्री आचार्यदेवनो आशय छे.
गुणभेदवडे आत्माने लक्षमां लेवा जतां पण अशुद्धतानुं वेदन थाय छे, गुणभेदना लक्षे शुद्धआत्मा
अनुभवमां आवतो नथी. छठ्ठी गाथा सांभळीने शिष्य एटलो तो तैयार थई गयो छे के गुणभेदनो विकल्प पण
अशुद्धता छे–अने शुद्धात्मानो अनुभव ते विकल्पथी पण पार छे–एम तेणे पकडी लीधुं छे; तेथी पूछे छे के
प्रभो! दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी पण आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे तो ए त्रणभेद केम कहेवामां आव्या छे? तेना
उत्तरमां आचार्यदेव गुणभेदनो पण निषेध करीने अभेद ज्ञायकस्वरूप बतावे छे, ते ज सम्यग्दर्शननो विषय छे.
छठ्ठी अने सातमी आ बे गाथामां तो आखा समयसारना मूळियां छे.
गुण–गुणीभेद ते व्यवहारनो ऊंचो एटले के छेल्लो प्रकाश छे. ज्यां तेनो निषेध कर्यो त्यां तेनी नीचेना
व्यवहारोनो तो निषेध आवी ज गयो. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एटलो भेदरूप व्यवहार पण ज्यां नथी पालवतो त्यां
‘राग ते आत्मा’ एवो व्यवहार तो केम पालवे? ‘चारे प्रकारना व्यवहारनो निषेध करीने ज्ञायक–स्वभावनी
द्रष्टि कर’ एम उपदेशमां कहेवाय, पण खरेखर तो ज्ञायक–स्वरूपनी द्रष्टि करतां ते चारे प्रकारना व्यवहारनो
निषेध थई जाय छे,–निश्चयस्वभावनो आश्रय लेतां ज व्यवहारनो आश्रय छूटी जाय छे.
आ विषय खास समजवा जेवो छे.
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छ गाथा सुधीमां क्यांय ‘व्यवहार’ शब्द नहोतो आव्यो; पहेलवहेलो आ सातमी गाथामां ‘व्यवहार’
शब्द कह्यो छे; आ गाथामां गुण–गुणी भेदरूप सूक्ष्म व्यवहारनी वात छे. ज्यां गुण–गुणीभेदने पण व्यवहार
कहीने तेनो निषेध कर्यो त्यां तेनी नीचेना नयो तो व्यवहार छे ज–ए वात आवी जाय छे.
बे गाथामां नीचेना पांच नयोनी वात आवी–
(१) उपचरित असद्भुत व्यवहार(२) अनुपचरित असद्भुत व्यवहार
(३) उपचरित सद्भुत व्यवहार(४) अनुपचरित सद्भुत व्यवहार
(प) शुद्ध निश्चय.
हवे आ पांचे प्रकारोमां पहेलो–पहेलो प्रकार बीजा–बीजा प्रकारनो साधक छे, एटले व्यवहार द्वारा पण
परमार्थ ज बताववानो अभिप्राय छे–ते वात करे छे.
राग–द्वेष ते पोतानुं परिणमन छे तेथी तेने आत्मा जाणवो त्यांथी नयनी शरूआत करी छे. पण पर
वस्तु साथे आत्मानी एकता जाणे तेने तो आत्मानो व्यवहार गण्यो नथी. परथी तो आत्मा भिन्न ज छे.
रागने आत्मा कहेनारो असद्भुत व्यवहारनय छे ते परथी आत्मानी भिन्नता बतावे छे, अने राग असद्भुत
छे. एम बतावीने तेनो निषेध करवानुं जणावे छे.
(१–२) आत्मा ज्ञायक छे, तेना स्वरूपमां विकार नथी, पण तेनी पर्यायमां विकार थवानी लायकात छे. तेमां
जे बुद्धिपूर्वक विकार थाय ते विकारने आत्मानो जाणवो ते उपचरित असद्भुत व्यवहारनय छे. विकार ते औपा–