Atmadharma magazine - Ank 101
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १०४ः आत्मधर्मः १०१
धिकभाव छे, ते आत्मानुं शुद्धस्वरूप नथी माटे ‘असद्भुत’ छे–एम समजतां उपाधिरहित शुद्ध स्वरूपनुं ज्ञान
थाय छे.
वळी, जे बुद्धिपूर्वक विकल्प थाय छे ते एम जणावे छे के त्यां अबुद्धिपूर्वकना विकल्प पण छे. केम के ज्यां
बुद्धिपूर्वक राग छे त्यां ज्ञान पूरुं कार्य करतुं नथी, तेथी त्यां ज्ञानमां न पकडी शकाय तेवो सूक्ष्म राग छे. जो ज्ञान
पूरुं कार्य करे (सूक्ष्म रागने पण जाणे तेवुं थई जाय) तो केवळज्ञान थई जाय अने त्यां विकार होय ज नहि.
माटे ‘विकार छे’ एम जे उपचरित असद्भुत व्यवहारनय जाणे छे ते एम सिद्ध करे छे के बीजो ख्यालमां न
आवे तेवो विकार पण छे; अने जेम आ बुद्धिपूर्वकनो विकार असद्भुत छे तेम ते अबुद्धिपूर्वकनो विकार
असद्भुत छे. आ रीते पहेलो नय बीजा नयनो साधक छे.
(२–३) अबुद्धिपूर्वकना रागने अनुपचरित असद्भुत व्यवहार कह्यो ते एम साबित करे छे के ते
रागथी पण ज्ञान जुदुं छे. रागने ज्ञान जाणे त्यां पण ज्ञान तो ज्ञान ज छे, ज्ञानमां रागनी उपाधि नथी. ‘आ
राग छे’ एम अबुद्धिपूर्वक राग जुदो पाडीने ख्यालमां नथी आवतो तेथी ते ‘अनुपचरित’ छे, पण ते
अबुद्धिपूर्वकनो राग पण असद्भुत छे एटले ते रागथी पण ज्ञान जुदुं छे एम आ नय सिद्ध करे छे; ए रीते
बीजो नय त्रीजा नयनो साधक छे. जो के बधाय नयोनुं परमार्थ तात्पर्य तो शुद्ध स्वभावनी द्रष्टि करवी ते ज छे,
पण नयोनो परस्पर संबंध बताववा पहेला नयने बीजा नयनो साधक कह्यो छे.
जे साधक जीव शुद्धात्माने साधी रह्यो छे तेना ज्ञानमां ‘नय’ होय छे. जो केवळज्ञान थई गयुं होय तो
तो एक साथे लोकालोकने प्रत्यक्ष ज्ञेय करे अने ते ज्ञानमां नय होय नहि. साधकना ज्ञाननुं परिणमन हजी
ओछुं, अने राग पण थाय छे. ते रागने ज्ञान जाणे छे पण हजी ज्ञाननो उपयोग तद्न सूक्ष्म थयो नथी तेथी
अव्यक्त रागने ते जुदो पकडी शकतो नथी, व्यक्तरागने पकडी शके छे. व्यक्तराग अव्यक्तरागने सिद्ध करे छे, ने
अव्यक्तरागने पण ‘असद्भुत’ कहेतां ते औपाधिकभाव छे, ज्ञाननुं मूळस्वरूप नथी एम सिद्ध थाय छे.
(३–४) रागने जाणनारुं ज्ञान रागनी उपाधिवाळुं नथी; ज्ञान ते तो ज्ञान ज छे. ज्ञानपर्याय पोतानी
छे, ते ज्ञान रागने जाणे छे एम कहेवुं ते उपचरित सद्भुत व्यवहार छे. ज्ञानपर्याय छे ते ज्ञेयने लीधे नथी
पण ज्ञान सामान्यने लीधे ज छे, एटले के ज्ञान परनुं नथी पण ज्ञान तो आत्मानुं ज छे. ‘ज्ञान परने जाणे
छे’ तेने उपचार कहीने एम बताव्युं के खरेखर ज्ञाननो संबंध पर साथे नथी पण ज्ञान तो ज्ञान ज छे एटले
ज्ञाननो संबंध त्रिकाळी गुण साथे छे. आ रीते उपचरित सद्भुतव्यवहार अनुपचरित सद्भुत व्यवहारने
साबित करे छे.
‘ज्ञान परनुं नथी, ज्ञान तो आत्मानुं छे’ एम कहेवामां पण हजी गुण–गुणीभेदनो व्यवहार छे; आ
छेल्लो व्यवहार छे. रागने जाणनारुं ज्ञान रागनुं नथी पण सामान्यज्ञाननी ते पर्याय छे, तेथी ज्ञाननी ते पर्याय
सामान्यज्ञान–स्वभावने साबित करे छे. पर्याय त्रिकाळी गुणने सिद्ध करे छे ने गुणमां विकार नथी एटले
विकारथी जीवनुं जुदापणुं सिद्ध थाय छे.–ए रीते, शुद्ध आत्मा द्रष्टिमां आवे ते आ अध्यात्मनयोनुं तात्पर्य छे.
विकार अने विकाररहित स्वभाव–ए बंनेने नहि जाणे तो स्वभाव तरफ वळीने विकारनो अभाव
क्यांथी करशे? हुं आत्मा ज्ञायक छुं–एम लक्ष करीने, पर्यायमां जे विकार थाय छे तेने पण जाण. विकार मारामां
थाय छे, अने मारा स्वभावमां ते असद्भुत छे एम जाणे तो तेनो निषेध थाय.
(४–प) अहीं तो हवे गुण–गुणीभेदरूप सूक्ष्म व्यवहारनी वात आवी छे. ‘आत्मा ज्ञानस्वरूप छे’
एटलो भेदनो विकल्प पण स्वानुभवने रोकनारो छे. ज्ञान अने आत्मा एम जुदी जुदी बे वस्तुओ नथी, छतां
भेद पाडीने कथन करवुं ते व्यवहार छे, अने ज्ञान आत्मानुं त्रिकाळीस्वरूप छे तेथी ते व्यवहार अनुपचरित
सद्भुत छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहेनारो आ अनुपचरित सद्भुतव्यवहार पण ‘ज्ञायकआत्मा’ ने ज
साबित करे छे. आ नयमां गुणगुणीभेद होवा छतां ते ज्ञानने अभेद आत्मा तरफ लई जाय छे; ए रीते चोथो
प्रकार पांचमा प्रकारने साधे छे. ज्ञायक आत्माने द्रष्टिमां लेवो ते ज बधा नयोनुं तात्पर्य छे. ज्यारे व्यवहारना
भेदो उपरनुं लक्ष छोडीने अभेद आत्माने लक्षमां लीधो त्यारे व्यवहारद्वारा पण परमार्थने ज साध्यो–एम
कहेवाय छे. पण जो भेदरूप व्यवहारनो ज आश्रय करीने रोकाय