Atmadharma magazine - Ank 101
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४७८ः १०पः
तो कांई व्यवहारने परमार्थनो साधक कहेवातो नथी, परमार्थ द्रष्टि वगरनो भेद ते खरेखर व्यवहार ज नथी.
अभेद उपर द्रष्टि होय तो ज भेदने व्यवहार कहेवाय. अभेद वगर भेद कोनो? अने निश्चय वगर व्यवहार
कोनो?
साधकने ज्ञान अधूरुं छे अने राग पण थाय छे; प्रतीतमां तो तेने रागवगरनो पूरो ज्ञानस्वभाव आवी
गयो छे, पण पर्यायमां हजी पूर्णता प्रगटी नथी. प्रतीतमां पूरुं ने पर्यायमां अधूरुं एवी साधकदशा छे. जो
प्रतीतमां पूर्णता न आवी होय तो कोना आधारे पूर्णताने साधे? अने जो पर्यायमां पूर्णता प्रगटी गई होय तो
हवे साधवानुं शुं रह्युं? माटे बंने पडखांने जेम छे तेम समजवा जोईए. साधकनुं ज्ञान राग वखते रागने पण
जाणे छे, रागना काळे ज्ञानमां पण तेवा रागने जाणवानुं सामर्थ्य छे, पण ते वखतेय साधकने द्रष्टिमांथी
अभेदस्वभावनी मुख्यता तो समयमात्र पण खसती नथी; रागनी मुख्यता करीने रागने जाणतो नथी पण
स्वभावनी मुख्यता राखीने रागने पण जाणे छे; एटले तेने राग क्षणेक्षणे टळतो ज जाय छे. अज्ञानीने तो
रागने जाणतां ‘राग ते ज हुं’ एम रागनी मुख्यता थई जाय छे ने स्वभावने ते चूकी जाय छे, एटले तेने
रागना अभावरूप परिणमन बिलकुल थतुं नथी.
ज्ञान रागनुं नथी पण ज्ञान तो आत्मानुं छे. परंतु अहीं तो कहे छे के ज्ञान अने आत्मा एवी जे
भेदकल्पना ते पण व्यवहार छे. ‘ज्ञायक’ आत्माने ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेद व्यवहारथी ज कहेवामां आवे छे,
निश्चयथी शुद्धज्ञायकतत्त्वमां तेवा भेद नथी; परमार्थवस्तुना अनुभवमां ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेदनो विकल्प
नथी. एकली अभेद ज्ञायकवस्तु ते ज निश्चयनयनो विषय छे. भेदरूप व्यवहारद्वारा पण आवो अभेद निश्चय
ज साध्य छे. जो अभेदरूप निश्चयने न साधे–तेने द्रष्टिमां न ल्ये–तो तो भेदने व्यवहार पण कई रीते कहेवो? जे
अभेदने लक्षमां लईने साध्य करे तेने भेदनो विकल्प ते व्यवहार छे. एकला भेदमां ज अटके तेने तो ते भेदनो
विकल्प व्यवहार पण नथी.
अभेदस्वरूपने साधवा जतां, प्रथम ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवा प्रकारनो भेदनो विकल्प वच्चे ऊठया विना
रहेतो नथी; पण ते भेदनो विकल्प राग छे, साधकनी द्रष्टिमां तेनो निषेध छे. अभेदस्वरूपने लक्षमां लेतां भेदनो
विकल्प तूटी जाय छे. एक रूप निर्विकल्प ज्ञायकतत्त्व ते ज सम्यग्दर्शननुं साध्य छे. वच्चे भेद आवे छे खरो पण
अभेदवस्तुमां एकाग्र थवुं ते ज प्रयोजन छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एवा भेदथी पण आत्मवस्तु जे अभेद छे ते ज
साध्य छे. माटे आचार्यभगवान कहे छे के ज्ञानीने दर्शन–ज्ञान–चारित्र पण व्यवहारथी छे. परमार्थे ज्ञानीने
दर्शन–ज्ञान–चारित्र नथी.–आनो अर्थ एवो नथी के ज्ञानी दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगरनो जड छे! श्री
कुंदकुंदभगवानना कथननो आशय शुं छे ते गुरुगम वगर अज्ञानीओने समजाय तेम नथी. आचार्यदेव अहीं
एम कहे छे के ज्ञानीनी द्रष्टि दर्शन–ज्ञान–चारित्रना भेद उपर नथी, अभेद आत्मा उपर ज तेमनी द्रष्टि छे; माटे
निश्चयथी दर्शन–ज्ञान–चारित्रना भेद पण आत्माने नथी, केम के द्रष्टिना विषयमां ते अभूतार्थ छे. द्रष्टिनो
विषय एक अभेद ज्ञायक आत्मा ज छे. ते अभेदआत्मानो अनुभव कराववा माटे अहीं दर्शन–ज्ञान–चारित्रना
भेदनो निषेध कर्यो छे. भेदना निषेध वगर अभेदमां जवातुं नथी. भेद उपर लक्ष रहे त्यां सुधी विकल्प थाय छे
ने अभेदवस्तुनो अनुभव थतो नथी. भेदनो निषेध करीने अभेदस्वभावमां ढळतां प्रमाणज्ञान थयुं त्यारे ज
खरेखर भेदने व्यवहार कहेवाय छे. ‘भेदनो निषेध करवो’ ते पण समजाववा माटेनुं कथन छे, खरी रीते भेदनो
निषेध करवो पडतो नथी पण ज्यां अभेद तरफ वळी गयो त्यां भेदनुं लक्ष छूटी गयुं, तेनुं नाम ‘भेदनो निषेध
कर्यो’ एम कहेवाय छे. ‘आ भेद छे अने तेनो हुं निषेध करुं’ एम जो लक्षमां लेवा जाय तो ते पण विकल्प ज
छे अने त्यां भेदनो निषेध थतो नथी पण तेनी उत्पत्ति थाय छे; माटे ज्ञायकस्वभावनी अस्तिने लक्षमां लईने
तेमां एकाग्र थवुं ते एक ज उपाय छे.
आत्मानो निश्चय अने व्यवहार बंने आत्मामां ज छे, आत्मानो निश्चय के व्यवहार परमां नथी; परनुं
आत्मा कांई करे ए वातने तो व्यवहारमां पण नथी लीधी. पोताना अंशनुं ज्ञान करावे तेने व्यवहार कहेवाय.
राग आत्मानी पर्यायमां थाय छे तेथी ते आत्मानो अंश छे, रागने आत्मानो जाणवो ते व्यवहार छे;
‘व्यवहार’ कहेतां ज एम नक्की थाय छे के जाणवुं ते निश्चय छे अने तेमां रागनो निषेध छे.