Atmadharma magazine - Ank 101
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १०६ः आत्मधर्मः १०१
परने आत्मानुं जाणवुं ते तो व्यवहार पण नथी, केम के आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणे परथी तो तद्न जुदा
ज छे; परना लक्षे तो आत्मानो अनुभव थतो नथी.
(१–२) हवे पोतानी क्षणिक अवस्थामां विकार छे, पण ते असद्भुत छे, तेना लक्षे भूतार्थस्वभाव
लक्षमां आवतो नथी, विकारनी सामे जोवाथी विकार टळतो नथी.
(३) विकारने जाणनारी ज्ञानपर्याय छे, ते ज्ञानपर्याय रागथी जुदी छे–एम ज्ञानपर्यायना लक्षे पण
विकल्प तूटीने शुद्ध आत्मानो अनुभव थतो नथी.
(४) ज्ञानपर्याय ते त्रिकाळी ज्ञानगुणनुं परिणमन छे, अने ज्ञान ते हुं–आत्मा छुं–एवा गुण–
गुणीभेदना विकल्पमां रहेतां पण शुद्धज्ञायकनो निर्विकल्प अनुभव थतो नथी.
–ए रीते, उपरना चारे प्रकारना व्यवहारना लक्षे शुद्ध आत्मानो अनुभव थतो नथी; पण अभेद ज्ञायक
स्वभावमां ढळतां ज ते व्यवहारनो निषेध थईने अपूर्व निर्विकल्प अनुभव प्रगटे छे.–आ ज धर्मनी रीत छे.
आ सिवाय साधकदशा थती नथी. निश्चयनो आश्रय करीने व्यवहारनो निषेध करतां साधकदशा प्रगटीने मुक्ति
थाय छे. धर्मात्मानी रुचि अभेद आत्मा उपर छे तेथी तेमने ज्ञान–दर्शन–चारित्र नथी एम कहीने भेदनो
निषेध करवामां आवे छे.–आ सम्यग्द्रष्टि थवानी एटले के धर्मनी पहेलामां पहेली वात छे.
छठ्ठी गाथामां प्रमत्त–अप्रमत्त पर्यायोनो निषेध करीने अखंड ‘ज्ञायकभाव’ बताव्यो; ते ज
‘ज्ञायकभाव’ सातमी गाथामां गुण गुणीभेदरूप छेल्ला व्यवहारनो निषेध करीने बताव्यो छे. एक ज
ज्ञायकभावना आश्रये बधा व्यवहारना विकल्पो छूटी जाय छे.
चारित्रपर्याय आत्माथी जुदी नथी एम बताववा माटे प्रवचनसारमां कहे छे के ‘चारित्र ते आत्मा छे.’
त्यां ज्ञाननी प्रधानताथी कथन छे. अहीं कोई कहे के ‘चारित्र ते आत्मा छे’–तो कहे छे के ना; एवो भेद नथी,
भूतार्थ आत्मामां ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेद नथी, आत्मा तो अभेदज्ञायक छे; आत्माने ‘ज्ञायक’ कहेतां
एकलुं ज्ञान न समजवुं पण आखो पिंड समजवो.–ए ज द्रष्टिनो विषय छे. अभेदवस्तुने लक्षमां लईने एकाग्र
थाय तो ज सम्यग्दर्शन अने वीतरागता प्रगटे छे, दर्शन ज्ञान–चारित्र वगेरे पर्याय उपर के भेद उपर लक्ष
करतां राग थाय छे. माटे समयसारमां द्रव्यद्रष्टिथी अभेदने प्रधान करीने उपदेश छे, भेदने गौण करीने (–
अभूतार्थ गणीने) अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे. आवी द्रष्टि प्रगट कर्या वगर जीवनुं कदी
कल्याण थतुं नथी.
जेने पोतानुं हित करवुं होय, कल्याण करवुं होय, मुक्ति करवी होय. तेणे पहेले ज घडाके एटलुं तो नक्की
करवुं जोईए के परथी तो मारो आत्मा तद्न जुदो छे, पर साथे मारे कांई लागतुं वळगतुं नथी, मारुं कल्याण
परमांथी आवतुं नथी.–आटलुं नक्की करे तो पोतामां वळवानो अवकाश रहे.
हवे पोतामां पण (१–२) रागनुं तो लक्ष नहि, (३) रागने जाणनार ज्ञानपर्यायनुं पण लक्ष नहि अने
(४) एक ज्ञानादि गुणना भेद उपर पण लक्ष नहि,–ए बधानुं लक्ष (–आश्रय, द्रष्टि, रुचि) छोडीने ‘ज्ञायक’
स्वभाव तरफ वळवुं (–तेनी रुचि–प्रतीति–आश्रय करीने एकाग्र थवुं) ते ज एक सम्यग्दर्शनथी मांडीने
केवळज्ञाननो उपाय छे. जेटले अंशे अखंड ज्ञायक आत्मा तरफ वळीने एकाग्र थाय तेटले अंशे विकल्प तूटीने
निर्विकल्पता थाय छे.
सुवर्णपुरी समाचार
(महा वद प)
* परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री सुखशांतिमां बिराजे छे.
* सवारना प्रवचनमां श्री नियमसारजी शास्त्र वंचाय छे तेनी १४३ गाथाओ वंचाई गई छे.
* बपोरना प्रवचनमां नवमी वखत श्री समयसारजीशास्त्र वंचातुं हतुं, ते माहसुद छठ्ठना रोज पूर्ण
थयेल छे; अने माह सुद सातमथी श्री पंचास्तिकाय शास्त्र वंचाय छे; तेनी २० गाथाओ वंचाणी छे.
श्री ‘पंचकल्याणक–प्रवचनो’ नामनुं पुस्तक प्रसिद्ध थयुं छे; आ पुस्तकमां सोनगढ–राजकोट–वींछीया–
अने लाठीमां कुल पांचवार थयेला पंचकल्याणक प्रतिष्ठामहोत्सवोनां खास प्रवचनो, उल्लासभर्यां संस्मरणो
तेमज केटलाक चित्रो पण छे. आ पुस्तक सर्वसाधारणमां उपयोगी थई शके तेवुं सरळ छे. पृष्ठ ४०० उपरांत;
किंमत २–४–०
श्री समयसारजी परमागमनी नवीन आवृत्ति संस्कृतटीका सहित छपाय छे.
श्री पंचास्तिकायशास्त्रनो गुजराती अनुवाद थई रह्यो छे. समयसार–बंधअधिकार उपरनां प्रवचनो
छपाय छे.