Atmadharma magazine - Ank 101
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४७८ः ८७ः
रत्नत्रयनो भक्त
श्री श्राविका–ब्रह्मचर्याश्रमना उद्घाटनोत्सव प्रसंगे आश्रममां
पू. गुरुदेवश्रीनुं मंगल–प्रवचन
(वीर सं. २४७८ माह सुद पः श्री नियमसार कलशः २२० तथा सूत्र १३प)
आ नियमसार भागवत शास्त्र छे, तेनो परमभक्ति अधिकार वंचाय छे. भक्ति कोने कहेवी? पोताना
ज्ञाताद्रष्टा आत्मस्वभावनी निर्विकल्प श्रद्धा–ज्ञान अने रमणता ते साची भक्ति छे; देव–गुरु–शास्त्र वगेरे
परनी भक्तिनो भाव ते शुभराग छे, ते धर्म नथी. धर्म तो पोताना चिदानंदस्वरूप आत्मानी द्रष्टि अने
स्वसंवेदन करीने तेमां लीन थवुं ते ज छे, अने तेने ज भगवान परमभक्ति कहे छे.
एवी भक्ति करनार जीव निरंतर भक्त छे एम हवे २२० मा श्लोकमां कहे छे–
जे जीव भवभयना हरनारा आ सम्यक्त्वनी, शुद्ध ज्ञाननी अने चारित्रनी भवछेदक अतुल भक्ति
निरंतर करे छे, ते कामक्रोधादि समस्त दुष्ट पापसमूहथी मुक्त चित्तवाळो जीव–श्रावक हो के संयमी हो–निरंतर
भक्त छे....भक्त छे.
जुओ, आ आश्रमना मांगळिकमां भक्तिनी वात आवी छे.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव अने पद्मप्रभमलधारि मुनिराज महा अध्यात्मनी मूर्ति हता, अमृतना
कंद हता; तेओ अत्यारे स्वर्गमां बिराजे छे, त्यांथी मनुष्य थई केवळज्ञान प्रगट करीने मुक्त थई जशे.
तेओ कहे छे के अहो! श्रमण हो के श्रावक हो, तेने शुभ के अशुभराग वखते पण द्रव्यद्रष्टिनी मुख्यता
खसती नथी, क्षणे क्षणे स्वभावनी द्रष्टिथी तेमने रत्नत्रयनी भक्ति वर्ते छे तेथी तेओ भक्त छे, भक्त छे.
सर्वज्ञ परमात्माए कहेली वातने संतोए नगारां पीटीने जाहेर करी छे. धर्मी श्रावकने पण निरंतर
रत्नत्रयनी भक्ति होय छे; राजपाट हो, गृहस्थाश्रम हो, स्त्रीओ हो, छतां अंदरमां ते धर्मीने भान छे के
हुं तो चिदानंदमूर्ति छुं; शुद्ध चिदानंदस्वरूपनी मुख्यता तेनी द्रष्टिमांथी एक समय पण छूटती नथी. आवो
धर्मी जीव रत्नत्रयनो भक्त छे. द्रष्टिमां शुद्धद्रव्यनी मुख्यता छूटीने एक क्षण पण पर्यायनी के निमित्तनी
मुख्यता थई जाय तो मिथ्यात्व थई जाय छे. शुद्धआत्मानी श्रद्धा–ज्ञानरूप भक्ति धर्मीने एक क्षण पण
खसती नथी.
मारो ज्ञानानंद स्वभाव छे, तेमां गुणगुणीना भेदनो विकल्प पण नथी–आम शुद्ध आत्मानुं भान करवुं
ते पहेली अपूर्व भक्ति छे. जे श्रावक एवुं भान करे छे ते ज भक्त छे. शुद्धरत्नत्रयथी मुक्ति थाय छे ने रागथी
तो बंधन थाय छे. नीचली भूमिकामां भगवाननी भक्ति, गुरुनी भक्ति वगेरेनो शुभभाव आवे छे पण ज्ञानी
तेने आस्रव समजे छे, ते निश्चयथी परम भक्ति नथी; निश्चयथी परम भक्ति तो पोताना शुद्धपरमात्मानुं
भजन करवुं ते ज छे. परमात्मतत्त्वना आश्रये जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप पर्याय प्रगटे ते भवभयनो
नाश करनारी भक्ति छे. आ सिवाय निमित्तथी के रागथी आत्माने लाभ माने तो ते मिथ्यात्व छे; भेदनो
विकल्प ऊठे ते पण राग छे; भेदनुं पण लक्ष छोडीने अभेद ज्ञान–आनंदस्वभावनी भक्ति करवी एटले के तेनो
आश्रय करीने तेमां तन्मय थवुं ते निश्चयभक्ति छे. ज्यां आवी भक्ति होय त्यां देव–गुरुनी भक्तिना
शुभरागने व्यवहारभक्ति कहेवाय छे. सर्वज्ञना मार्गमां जे शुद्धरत्नत्रयने भजे तेने ज भक्त कह्यो छे. जे जीव
रत्नत्रयरूपे परिणम्यो ते रत्नत्रयनो भक्त छे.
शुद्ध आत्मानी श्रद्धा करीने रागरहित स्वसंवेदनथी पोताना आत्माने ज स्वज्ञेय बनावीने जे जाणे छे
तेने रत्नत्रयनी भक्ति छे. गृहस्थी हो के मुनि हो–जेने पोताना शुद्धआत्मानां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनी भक्ति छे