ते ज साचो भक्त छे. आ भक्ति केवी छे?–भवनी छेदक छे. आ सिवाय, आत्माना भान वगर साक्षात्
आनंदस्वरूप छुं, एक समयनो क्षणिक विकार ते हुं नथी–एवा श्रद्धा–ज्ञान–रमणतारूप निज शुद्धआत्मानी जे
भक्ति छे ते भवनो नाश करनारी छे.
नमो सिद्धाणं
नमो आईरियाणं
नमो उवजझायाणं
नमो लोए सव्व साहूणं
जेओ आत्माना परम आनंदपदमां स्थिर थया छे तेओ परमेष्ठी छे.
कह्युं छे. स्वभावना आनंदनी मस्तीमां झूलतां झूलतां, शुभ विकल्प ऊठतां आ शास्त्रनी रचना थई गई छे.
संतमुनि ते शब्दना के रागना पण कर्ता नथी, चिदानंद स्वभावना भानपूर्वक तेनी रमणतामां झूलतां आ शास्त्र
रचाई गयुं तेना तेओ ज्ञाता छे. टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव छे तेओ पण आवा ज महा भावलिंगी संत
हता. अंतरमां सच्चिदानंद परमात्मानो अनुभव करतां करतां आ टीका रचाई गई छे. तेमां आ कलशमां
भक्तिनुं स्वरूप कह्युं, के जे जीव विकारथी रहित थईने शुद्ध रत्नत्रयने निरंतर भजे छे–आराधे छे ते ज भक्त छे.
पार चिदानंदस्वभावी आत्माना श्रद्धा–ज्ञान–रमणता ते धर्म छे, अने ते ज परम भक्ति छे.
तेनी तुलना थई शकती नथी, तेने कोई रागनी के व्यवहारनी उपमा दई शकाती नथी. वळी कह्युं छे के
रत्नत्रयनी अतूलभक्ति ‘निरंतर’ करे छे एटले के स्वभावना आश्रयनी मुख्यता एक समय पण तूटती नथी,
स्वभावनुं जेटलुं अवलंबन वर्ते छे तेटली रत्नत्रयनी भक्ति निरंतर वर्ते छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने पण
निश्चयस्वभावनी मुख्यता क्षणमात्र कदी खसती नथी माटे तेने निरंतर सम्यग्दर्शनादिनी भक्ति छे. मुनिराज
कहे छे के अहो! शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति करनारा ते श्रावको तेमज श्रमणो भक्त छे–भक्त छे. बे वार ‘भक्त
छे’ एम कहीने पोतानो प्रमोद जाहेर कर्यो छे.
तीर्थंकर भगवाननी भक्ति करे छे, एक भव अवतारी इन्द्रो अने इन्द्राणीओ पण भगवान पासे भक्तिथी
थनगन करतां बाळकनी जेम नाची ऊठे छे, परंतु ते वखतेय अंदरमां शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावनी द्रष्टि खसती
नथी. नंदीश्वरद्वीपमां शाश्वत जिनबिंबो छे, त्यां जईने ईंद्र वगेरे समकितीओ पण भक्तिथी नाची ऊठे छे, ते