Atmadharma magazine - Ank 101
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः ८८ः आत्मधर्मः १०१
ते ज साचो भक्त छे. आ भक्ति केवी छे?–भवनी छेदक छे. आ सिवाय, आत्माना भान वगर साक्षात्
भगवान पासे जईने भक्ति करे अने तेनाथी कल्याण थई जशे एम माने तेने भक्त कहेता नथी.
चिदानंद भगवान आत्मामां भव नथी, तेनी जे भक्ति छे ते भवछेदक छे. चैतन्यस्वभावने चूकीने
विकार जेटलो पोताने मानवो ते मिथ्यात्वनुं भजन छे अने ते भवनुं कारण छे. हुं तो त्रिकाळ ज्ञान–
आनंदस्वरूप छुं, एक समयनो क्षणिक विकार ते हुं नथी–एवा श्रद्धा–ज्ञान–रमणतारूप निज शुद्धआत्मानी जे
भक्ति छे ते भवनो नाश करनारी छे.
अंतरमां आवी शुद्धरत्नत्रयदशा प्रगटे त्यारे मुनिपणुं होय छे. जेने ज्ञाता चिदानंदस्वभावनुं भान थयुं
अने तेमां लीन थईने मुनिदशा प्रगटी तेवा संतने गणधरदेवना पण नमस्कार पहोंचे छे; णमो लोए सव्व
साहूणं एम बोले त्यारे समस्त भावलिंगी संतोने नमस्कार आवी जाय छे.
नमो अरिहंताणं
नमो सिद्धाणं
नमो आईरियाणं
नमो उवजझायाणं
नमो लोए सव्व साहूणं
–अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु पांचे परमेष्ठी छे; गणधरदेव ज्यारे नमस्कार मंत्र बोले
त्यारे ते पांचे परमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार आवी जाय छे. गणधरदेव पोते पण परमेष्ठी पदमां भळेला छे.
जेओ आत्माना परम आनंदपदमां स्थिर थया छे तेओ परमेष्ठी छे.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव महा मुनिराज भावलिंगी संत हता; पोताना अंतरना अनुभवमां
सिद्धभगवान जेवा आनंदनो घणो अनुभव तेओ करता हता; जेवुं अनुभवमां आव्युं तेवुं ज वस्तुस्वरूप तेमणे
कह्युं छे. स्वभावना आनंदनी मस्तीमां झूलतां झूलतां, शुभ विकल्प ऊठतां आ शास्त्रनी रचना थई गई छे.
संतमुनि ते शब्दना के रागना पण कर्ता नथी, चिदानंद स्वभावना भानपूर्वक तेनी रमणतामां झूलतां आ शास्त्र
रचाई गयुं तेना तेओ ज्ञाता छे. टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव छे तेओ पण आवा ज महा भावलिंगी संत
हता. अंतरमां सच्चिदानंद परमात्मानो अनुभव करतां करतां आ टीका रचाई गई छे. तेमां आ कलशमां
भक्तिनुं स्वरूप कह्युं, के जे जीव विकारथी रहित थईने शुद्ध रत्नत्रयने निरंतर भजे छे–आराधे छे ते ज भक्त छे.
भगवाननी भक्तिमां कषायनी मंदतानो भाव ते शुभभाव छे, तेमां धर्म नथी पण पुण्य छे; शब्दो
बोलाय के हाथ जोडाय वगेरे देहनी क्रिया छे तेनाथी तो पुण्य पण नथी, ते तो जड छे. देहथी भिन्न अने रागथी
पार चिदानंदस्वभावी आत्माना श्रद्धा–ज्ञान–रमणता ते धर्म छे, अने ते ज परम भक्ति छे.
अहीं शुद्धरत्नत्रयनी ‘अतुल भक्ति’ नी वात लीधी छे. ‘अतूलभक्ति’ कहीने व्यवहारनो अने रागनो
निषेध बताव्यो छे. स्वभावना श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रयनी जे भक्ति छे ते एवी अतूल छे के कोई साथे
तेनी तुलना थई शकती नथी, तेने कोई रागनी के व्यवहारनी उपमा दई शकाती नथी. वळी कह्युं छे के
रत्नत्रयनी अतूलभक्ति ‘निरंतर’ करे छे एटले के स्वभावना आश्रयनी मुख्यता एक समय पण तूटती नथी,
स्वभावनुं जेटलुं अवलंबन वर्ते छे तेटली रत्नत्रयनी भक्ति निरंतर वर्ते छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने पण
निश्चयस्वभावनी मुख्यता क्षणमात्र कदी खसती नथी माटे तेने निरंतर सम्यग्दर्शनादिनी भक्ति छे. मुनिराज
कहे छे के अहो! शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति करनारा ते श्रावको तेमज श्रमणो भक्त छे–भक्त छे. बे वार ‘भक्त
छे’ एम कहीने पोतानो प्रमोद जाहेर कर्यो छे.
भगवान! तारो आत्मा ज परमात्मा छे, परमात्मपद तारी आत्मशक्तिमां भर्युं छे, तेनी श्रद्धा अने
ज्ञान करीने तेमां लीन था, ते ज परमभक्ति छे. आवी निश्चय भक्तिना भान सहित सम्यग्द्रष्टि श्रावको पण
तीर्थंकर भगवाननी भक्ति करे छे, एक भव अवतारी इन्द्रो अने इन्द्राणीओ पण भगवान पासे भक्तिथी
थनगन करतां बाळकनी जेम नाची ऊठे छे, परंतु ते वखतेय अंदरमां शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावनी द्रष्टि खसती
नथी. नंदीश्वरद्वीपमां शाश्वत जिनबिंबो छे, त्यां जईने ईंद्र वगेरे समकितीओ पण भक्तिथी नाची ऊठे छे, ते
व्यवहारभक्ति छे, अने अंदरमां शुद्धस्वभावनी द्रष्टि पडी छे ते निश्चयभक्ति छे.
लोकोमां पण कहे छे के शक्तिमानने भजो. पोतानो धु्रव कारण परमात्मा ते ज परम शक्तिमान छे,
परमा–