Atmadharma magazine - Ank 102
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः ११७ः आत्मधर्मः १०२
दूर रहो, परंतु आत्मानो एक गुण पण बीजा गुणनी पर्यायने सर्जतो नथी, दरेक गुण पोते ज पोतानी पर्यायने
सर्जे छे. श्रद्धागुणना आश्रये श्रद्धानी पर्याय सर्जाय छे, ज्ञानगुणना आश्रये ज्ञाननी पर्याय सर्जाय छे, चारित्रना
आश्रये चारित्रनी पर्याय सर्जाय छे. अखंड आत्माना आश्रये बधा गुणोनी निर्मळपर्याय एक साथे रचाती जाय
छे. ए सिवाय मंद कषायथी अर्थात् व्रत भक्ति वगेरेना शुभपरिणामथी सम्यक्श्रद्धा वगेरे पर्यायनी रचना थती
नथी.
आत्मानी वीर्यशक्तिथी पोते स्वतंत्रपणे पोताना स्वरूपनी रचना करे छे; स्वरूपनी रचना करवा माटे
कोई विकल्पनो के दिव्यध्वनिना उपदेशनो आश्रय तेने नथी. परने लईने पर्याय खीले एवो आत्मानो स्वभाव
ज नथी. पोतानी पर्याय खीलवा माटे जेणे परनो आश्रय मान्यो छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, ने तेनी ते पराश्रयनी
मान्यता ज संसारनुं मूळ कारण छे. त्रिकाळी शक्तिना आश्रयपूर्वक एकेक समयनी पर्याय ते ते काळना स्वतंत्र
वीर्यसामर्थ्यथी परिणमी रही छे, तेने कोई परनी तो अपेक्षा नथी ने पोतानी पूर्व पर्यायनी अपेक्षा पण नथी.
अहो! निरपेक्ष स्वतंत्र वीर्य समये समये आत्मामां ऊछळी रह्युं छे. जो आवी पोतानी शक्तिने ओळखे तो
पोतानी पर्यायनी रचना माटे पराश्रयनी बुद्धि छूटी जाय, एटले स्वद्रव्यना आश्रये निर्मळ–निर्मळ पर्यायनी
रचना थाय, तेनुं नाम धर्म अने मोक्षमार्ग छे.
आत्मा परनुं करे ए वात तो अहीं नथी ने परनुं न करे ए वात पण अत्यारे नथी, केमके आत्माना
स्वभाव तरफ वळ्‌यो त्यां पर सामे लक्ष ज नथी. वळी स्वभावद्रष्टिमां आत्मा रागने करे ए वात तो नथी अने
आत्मा रागने टाळे ए वात पण नथी; केम के स्वभावद्रष्टिथी जोतां आत्मामां राग छे ज नहि, तेथी तेने
टाळवानुं पण क्यां रह्युं? आवी स्वभावद्रष्टि करवी ते ज वीतरागतानुं मूळ छे. अहीं एकली स्वभावद्रष्टिना
विषयनुं वर्णन छे. रागनी रचना करे एवो तो आत्मानो स्वभाव नथी अने ते रागने टाळवा उपर पण लक्ष
नथी, फक्त स्वरूपमां ज लक्ष छे, स्वरूपना लक्षे वीतरागी पर्यायनी रचना थई जाय छे. वस्तुस्वभावनी द्रष्टिथी
निर्मळ अवस्थानी रचना करे एवुं आत्मानुं सामर्थ्य छे. ‘आत्मा’ ज तेने कह्यो के जेना सामर्थ्यथी स्वरूपनी
उत्पत्ति ज थाय, जेनाथी विकारनी उत्पत्ति थाय तेने आत्मा कहेतां नथी. जो आत्म स्वरूप पोते रागनी उत्पत्ति
करे तो तो राग कदी टळी ज न शके, अने जो परनी रचना करवानी तेनामां ताकात होय तो ते परथी कदी जुदुं
पडी शके नहि. जे जेनी रचना–उत्पत्ति करे ते तेनाथी जुदो रही शके नहि. रागनो उत्पन्न कर्ता आत्मा नथी तेथी
तेनो टाळनार पण आत्मा नथी. जो स्वभावथी आत्मा रागनो टाळनार होय तो रागने सदाय टाळ्‌या ज करे
एटले के सदाय राग उपर ज लक्ष रह्या करे, रागरहित स्वरूपमां कदी वळी शके नहि. ‘हुं रागने टाळुं’ एवी
जेनी बुद्धि छे तेनुं लक्ष राग उपर छे पण आत्मस्वभाव उपर तेनुं लक्ष नथी. अहीं तो सर्वतः विशुद्ध एवुं
आत्मस्वरूप बताववुं छे, ते स्वरूपनी द्रष्टिमां तो एक सहज शुद्ध आत्मानी ज अस्ति छे, ए सिवाय बीजा कोई
भावनो स्वीकार तेमां नथी. अहो! आत्मा एकलो भगवान छे, पोते ज चैतन्य परमेश्वर छे; जीवत्व, ज्ञान,
अस्तित्व, प्रभुत्व वगेरे अनंत शक्तिओना अभेद पिंडनी द्रष्टिथी, श्रद्धा–ज्ञान–आनंद वगेरे अनंत गुणोने
स्वस्वरूपमां परिणमावीने स्वरूपनी रचना करवानुं तेनुं सामर्थ्य छे.
प्रश्नः– शुं पहेलेथी ज आवो आत्मा समजवो? के पहेलां बीजुं कांई करवुं?
उत्तरः– जो धर्म करवो होय–आत्मानुं कल्याण करवुं होय तो पहेलां ज आवो आत्मा समजवो, केम के
धर्म पोताना आत्मामांथी ज प्रगटे छे, कयांय बहारथी प्रगटतो नथी. धर्म करवा माटे पहेली ज रीत आ छे,
बीजी कोई रीत नथी. देहथी पार, तथा पाप अने पुण्यना अभावरूप अनंत शक्तिपिंड ज्ञायकमूर्ति आत्मा छे, ते
आत्माना स्वरूपनी साची प्रतीति करवी ते ज धर्मनी शरूआतनो उपाय छे.
आत्माना अनंत स्वभावसामर्थ्यनी ना पाडे,–तेने जाणीने तेने कबूले पण नहि, तो ते सामर्थ्य कयांथी
प्रगटशे? ज्यां सत्ता पडी छे तेमांथी आवशे के बहारथी? परमात्मपणानी सत्ता पोतामां भरी छे ते सत्ताने
स्वीकारीने तेनी सन्मुख थया विना परमात्मदशा खीले नहि. जगतना बधाय पदार्थो पोतपोताना स्वकाळ
प्रमाणे बदली रह्यां छे, ते ते समयना तेना स्वभावथी ज दरेक पदार्थ परिणमी रह्यो छे; तेमां ईंद्र पण शुं करे ने
तीर्थंकर पण शुं करे? जो आवी वस्तुस्थिति समजे तो कयांय पण परनो मिथ्या अहंकार रहे नहि. एटले परथी
ने विकारथी उदासीन थईने ज्ञायक स्वरूपनो उत्साह