जेने सुखी थवुं होय तेणे आवा आत्मानी समजणनो रस्तो लेवो पडशे.
निराकुळता ते सुखगुणनुं लक्षण छे. सुखगुण आत्मद्रव्यमां छे. गुणमां छे ने पर्यायमां पण छे. द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणेमां सुख व्यापेलुं छे; आत्माना असंख्य प्रदेशोमां सुख फेलायेलुं छे, आत्मानो एक पण प्रदेश सुखशक्ति
वगरनो खाली नथी. जेवो आत्मानो आकार छे तेवो ज तेना सुखनो आकार छे. आत्माना द्रव्य गुण पर्यायमां
आनंद छे, पण दया वगेरे रागभावमां आनंद रहेतो नथी, क्यांय मकानमां पैसामां, स्त्रीमां, शरीरमां के रागमां
आनंद नथी; आत्माना ज्ञान–दर्शन–चारित्र वगेरे अनंत गुणोमां आनंद अभेदपणे रहेलो छे; तेमांथी आनंद
लेवा मांगे तो मळशे, पण तेमांथी स्वर्गादि लेवा मांगे तो ते नहि मळे. स्वर्ग मळे ते पण रागनुं फळ छे,
आत्माना गुणोमां रागनो अभाव छे ने रागमां आत्माना गुणोनो अभाव छे.
पर्यायने गौण करीने त्रिकाळी स्वभावनी मुख्यताथी अहीं कहे छे के आत्मामां आकुळता छे ज नहि,
आत्मा तो त्रिकाळ सुखनो सागर छे. जेने एकली आकुळता ज भासे छे पण ते वखते ज बेहद अनाकुळ
सुखस्वभाव नथी भासतो ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. जेणे एक समयनी लागणी जेटलुं ज पोतानुं स्वरूप
मान्युं तेणे आत्माने जाण्यो नथी. आकुळता तो एक सुखगुणनी एक समयनी विकृत अवस्था छे, ते ज
वखते अनंती अनाकुळतानो पिंड एवो सुखगुण ध्रुव पडयो छे ने एवा अनंत गुणोनो पिंड आत्मा छे,
ते स्वभावना अनंत महिमाना जोरे साधक कहे छे के आकुळता मारामां छे ज नहि. जेने स्वभावनुं जोर न
भासतां विकारनुं जोर भासे छे तेने स्वभावनो महिमा अने विश्वास नथी, एटले स्वभावनो अनादर छे
ने विकारनो आदर छे, ते ज संसारनुं मूळ छे. अहीं आत्माना अनंत धर्मने ओळखावे छे, ते ओळखतां
क्षणिक विकारनो महिमा छूटी जाय छे अने स्वभावनुं सम्यग्दर्शन प्रगटे छे, ते मुक्तिनुं मूळ छे; ते प्रगट
थतां ज अनंत संसारनुं मूळ छेदाई जाय छे.
पण त्रण–काळना आनंदनो अनुभव एक साथे न थाय, अनुभव तो वर्तमानपूरतो ज होय. भविष्यना
आनंदनुं ज्ञान अत्यारे थाय पण तेनो भोगवटो अत्यारे न थाय. त्रणकाळना आनंदना वेदनने एक समयमां
जाणी ले एवुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे पण त्रणकाळना आनंदने भेगो करीने वर्तमानमां वेदी ले एवुं ज्ञाननुं सामर्थ्य
नथी. सिद्धभगवंतो पोताना भविष्यना अनंत अनंत काळना आनंदने वर्तमानमां जाणे छे, पण भविष्यना
आनंदनुं वेदन तो ते भविष्यनी पर्यायमां थशे, तेनुं वेदन अत्यारे थतुं नथी; वेदन तो वर्तमान पर्यायना
आनंदनुं ज छे, समये समये नवा नवा परिपूर्ण आनंदने तेओ वेदी रह्या छे. एवी आनंदशक्ति दरेक आत्मामां
त्रिकाळ पडी छे, तेनो भरोसो करतां ते व्यक्त थाय छे. जो त्रिकाळी द्रव्य–गुणनो आनंद एक समयमां व्यक्तपणे
वेदाय जाय तो बीजा समयनो आनंद कयांथी? त्रिकाळ शक्तिरूप आनंद तो अव्यक्त छे, ने पर्यायमां समये
समये आनंद व्यक्त थाय छे ते वेदाय छे. ए रीते आनंदशक्ति द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां रहेली छे. माटे हे
भाई! तारो आनंद तारामां ज शोध, तारो आनंद तारामां छे, ते बहार शोधवाथी नहि मळे. तारुं आखुं द्रव्य
ज आनंदथी भरेलुं छे, अनंत शक्तिना पिंड आत्मानी अभेदद्रष्टि कर तो ते आनंदनो अनुभव थाय. परना
आश्रयमां रोकातां आकुळता थाय छे ते आत्मानुं स्वरूप नथी. सामान्यद्रव्यमां आनंद छे, तेना अनंतगुणोमां
आनंद छे ने अनंत पर्यायोमां आनंद छे, ए रीते आत्मा अनंत आनंदमय छे. अहो! आवा आत्मानी सामे
जुए तो दुःख छे ज क्यां? आत्माना आश्रये धर्मात्मा निःशंक छे के भले शरीरनुं गमे तेम थाय के ब्रह्मांड आखुं
गडगडी जाय तोपण हुं तो मारा ज्ञाताभावने आश्रये शांति राखी शकुं छुं, केमके मारी शांति–मारो आनंद मारा
आश्रये छे. हुं मारा आनंद