Atmadharma magazine - Ank 102
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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चैत्रः २४७८ः ११३ः
समुद्रमां डुबकी मारीने लीन थयो त्यां मारी शांतिमां विघ्न करनार जगतमां कोई नथी. अंतरमां पोतानी
आत्मशक्तिनो आवो निःशंक भरोसो आव्या विना धर्मनो अपूर्व पुरुषार्थ कोना जोरे करशे?
‘कोई बीजो मारी निंदा करे तो मारां पाप धोवाई जाय’–आवी जेनी मान्यता छे तेणे प्रथम तो
आत्माने ज पापी मान्यो छे अने ते पाप टाळवानो उपाय परथी मान्यो छे, ते मोटो मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं तो
कहे छे के अरे भाई! तारो आत्मा त्रिकाळ अनंत गुणनी मूर्ति छे, तेमां पाप छे ज नहि; माटे परनी ओशियाळ
छोडीने तारा आत्मा सामे ज जो. आत्मामां कयांय आकुळता नथी. आत्मा ज्ञान करे के पोतामां ठरे तेमां
आकुळता नथी. शरीरमां रोग थाय तेने जाणवामां कांई आकुळता नथी. शरीर, पैसा वगेरेनी ममता करवी ते
आकुळता छे पण तेनुं ज्ञान करवामां कांई आकुळता नथी. जो ज्ञान करवुं ते आकुळतानुं कारण होय तो तो ते
आत्मानुं स्वरूप थई जाय अने आकुळता कदी ज्ञानथी जुदी ज न पडे. सर्वज्ञभगवान आखा विश्वने जाणे छे
छतां तेमने आकुळतानो एक अंश पण नथी. माटे ज्ञानमां आकुळता नथी. आत्माना अस्तित्वधर्ममां पण
आकुळता नथी; आकुळतानो नाश थतां आत्मामांथी कांई घटी जतुं नथी, आकुळतानो नाश थवा छतां आत्मानुं
पूरेपूरुं अस्तित्व रहे छे, माटे आत्माना अस्तित्वमां राग नथी. ए रीते आत्माना कोई गुणमां आकुळता नथी.
आकुळताना अभावमां पोताना अनंत गुण–पर्यायोने आत्मा टकावी राखे छे.
जेने आत्मा जोईतो होय तेने संसार नहि मळे; अने जेने संसार राखवो हशे तेने आत्मा नहि मळे.
संसारनी चारे गतिनी नदावा फारगति करीने आवे के ‘हवे आ संसारथी बस थाव, हवे मारे आ संसार न
जोईए’–तेने आत्मा मळशे. संसारनो एक कणियो पण जेने गमतो हशे–पुण्यनी के स्वर्गनी पण जेने प्रीति
हशे ते जीव आत्मा तरफ नहि वळी शके. जो तारे आनंदमूर्ति आत्मा जोईतो होय तो शरीर अने विकारने
‘हराम’ कर के मारे हवे ते कांई जोईतुं नथी, एक चिदानंद आत्मा सिवाय शरीर के विकार ते कांई मारुं स्वरूप
नथी, हुं तो ज्ञान छुं. एम ज्ञान वडे आत्माने गोततां तेमां ज्ञान साथे आनंद वगेरे अनंती शक्तिओ मळशे,
पण विकार, शरीर के पैसा–छोकरां एवुं कांई तेमांथी नहि मळे.
आत्मानी सत्तामां अनंतो आनंद छे. तेवा आत्माना भान सहित चक्रवर्तीने बहारमां छ खंडनुं राज्य
अने छन्नुं हजार राणीओ वगेरे वैभव हतो पण हराम छे तेमां कयांय आनंद मानता होय तो! अस्थिरतानो
जे राग छे तेने पण आत्माना असली स्वरूपमां खतवता नथी, आत्मामां ज आनंद मान्यो छे. चैतन्य तत्त्वमां
परम ज्ञान आनंद वगेरे अनंत शक्तिओ छे पण तेमां पुण्य–पाप वगेरे विकारी तत्त्वो नथी; आवा चैतन्य
तत्त्वनी श्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन छे. अहो! सम्यग्द्रष्टि पोताना आत्मा सिवाय कयांय सुख देखतो नथी, ते
सुखने पोताना आत्मामां ज देखे छे. ज्ञान साथे सुख वगेरे अनंत गुणो आत्मामां भेगा ज ऊछळे छे–एम
अनेकान्त ने देखनार धर्मीनी द्रष्टि पोताना आत्मा उपर छे, एटले आत्मानी द्रष्टिमां तेने सुख ज छे; परथी
सुख मानतो नथी ने पोताना स्वभावमां दुःखने देखतो नथी. स्वभाव तो सुखशक्तिथी ज भरेलो छे.
आत्माना स्वभावमां आकुळता त्रण काळमां नथी अने अनाकुळता त्रण काळमां खसती नथी. आखा
द्रव्यना आनंदनुं वेदन एक समयमां न थाय पण तेनुं ज्ञान थई जाय. जेम आखा लाडवानुं एक बटकुं खातां ज
आखा लाडवाना स्वादनुं ज्ञान थई जाय, पण ते बधो स्वाद वेदनमां आवी जतो नथी; तेम ज्ञानने अंतर्मुख
करतां त्रिकाळी आनंदनुं ज्ञान थई जाय छे पण द्रव्य–गुणनो त्रिकाळी आनंद एक समयना वेदनमां आवी जतो
नथी. जो एक समयनी पर्यायमां ज त्रिकाळी द्रव्य–गुणनो आनंद व्यक्तपणे वेदाई जाय तो आनंद शक्ति कयां
रही! अने बीजा समयनो आनंद कयांथी आवशे! द्रव्य गुणनो आनंद तो त्रिकाळ अनादिअनंत छे ने पर्यायनो
आनंद एक समय पूरतो छे ते नवो प्रगटे छे, प्रगटया पछी समये समये नवो नवो थईने सादि–अनंत छे.
पर्यायनो आनंद छे तेनो प्रवाह द्रव्य–गुणमांथी आव्यो छे माटे ते आनंद द्रव्य–गुणमांथी सदाय आव्या ज
करशे, द्रव्यनी साथे सदाय ते आनंद टकया करशे जेने आवा आत्म द्रव्यनी श्रद्धा थई तेने ‘मारो आनंद कोई
लूंटी जशे’ एवी शंका रहेती