नथी. आ सुखशक्ति अथवा तो आनंदशक्ति, शक्तिमान एवा द्रव्यना आश्रये रहेली छे. एकेक आत्मा आवी
अनंत शक्तिथी परिपूर्ण परमात्मा छे, तेनी प्रतीति करवी ते जैनधर्मनुं सम्यग्दर्शन छे अने ते ज मुक्तिनुं पहेलुं
सोपान छे. ज्यां सुधी पोतानी परमात्मशक्तिनो विश्वास पोताने ज अंतरथी न जागे त्यां सुधी परमात्मा
थवाना उपायनी शरूआत थाय नहि. अनंत शक्तिना चैतन्यपिंडमां कोई एक गुण जुदो नथी, तेथी एक गुणने
लक्षमां लेवा जतां परमार्थे अनंत गुणोथी अभेद आत्मानुं ज लक्ष थई जाय छे. आ शक्तिओना वर्णनद्वारा
अनंत शक्तिनो पिंड आखो आत्मा बताववानुं प्रयोजन छे.
जे अंगीकार करे तेने जरूर मोक्षमां लई जवो, मने अंगीकार कर्या पछी संसारमां नहि रही शकाय! तेम जेने
आत्मानुं परम सुख जोईतुं होय तेने ईंद्रियसुख नहि मळे, ने अतीन्द्रिय चैतन्यसुख मळ्या वगर रहेशे नहि.
आवी सुखशक्ति आत्मामां त्रिकाळ छे. आवी सुखशक्तिवाळा आत्मानी प्रतीत करे तेने पर्यायमां सुख प्रगटया
विना रहे नहि. द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ सुखरूप छे अने तेनो स्वीकार करीने तेनी सन्मुख थतां पर्याय पण
सुखरूप थई गई. ए रीते द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणे सुखरूप छे. साधकनुं ज्ञान अंतर्मुख थईने परिणम्युं त्यां ते
ज्ञानक्रिया साथे आवी सुखशक्ति पण ऊछळे छे.
छे. आ वीर्यशक्तिए आखी चैतन्यवस्तुने स्वरूपमां टकावी राखी छे. वीर्यशक्ति द्रव्य गुण–पर्याय त्रणेमां रहेली
छे. पर्यायमां पण पोतानी रचनानुं सामर्थ्य छे. वस्तुना अनंत गुणो छे ते बधाय निज निज स्वरूपे अनादि–
अनंत टकी रह्या छे, ज्ञान अनादिअनंत ज्ञानरूपे टकी रहे छे, सुख अनादि अनंत सुखरूपे टकी रहे छे, अस्तित्व
अनादिअनंत अस्तित्वपणे टकी रहे छे,–एवुं दरेक गुणनुं सामर्थ्य छे. जेम गुण अनादिअनंत निजस्वरूपे टकी
रहे छे एवुं गुण–वीर्य छे तेम अनादिअनंतपर्यायोमां दरेक पर्याय पोतपोताना स्वरूपमां एकेक समयना सत्
तरीके टकी रहेली छे, कोई पर्याय पोतानुं स्वरूप छोडीने आघी–पाछी थती नथी एवुं एकेक समयनी पर्यायनुं
वीर्य छे.
वीर्यशक्ति रागने रचती होय तो तो सदाय रागने रच्या ज करे!–तो पछी रागरहित मुक्तदशा कयारे
थाय? माटे रागादि विकारनी रचना–उत्पत्ति गोठवण करे एवुं चैतन्यनी वीर्यशक्तिनुं स्वरूप नथी.
परवस्तुमां कांई ऊथलपाथल करे एवुं तो आत्मानुं बळ नथी, अने विकार करे एवुं पण खरेखर
आत्मानुं बळ नथी, आत्मानुं बळ तो पोताना स्वरूपनी रचना करवानुं छे. आत्मामां एक एवुं
चेतनबळ छे के कोई बीजानी सहाय वगर पोतेपोताना स्वरूपनी रचना करे छे. अहीं ‘स्वरूपनी रचना’
करवानुं कह्युं तेनो अर्थ शुं? कांई स्वरूपने नवुं बनाववानुं नथी, पण आत्मानी सत्ता कायम निजस्वरूपे
टकी रहे छे तेनुं नाम ज स्वरूपनी रचना छे. आत्मा पोताना धर्मोवडे विकारनी के परनी रचना करतो
नथी. ‘हुं परनी रचना करी दउं’ एम अज्ञानी कल्पे छे ते तेनी मूढता छे. शरीरनी, मकाननी, वचननी
वगेरे कोई पण परद्रव्यनी रचना करवानी ताकात आत्मामां छे ज नहि. अमुक आहारने लेवो ने अमुक
आहारने छोडवो–एम आहारनी रचना करवानुं सामर्थ्य आत्मामां नथी. ते बधी जडनी क्रियाओ जड–
वीर्यथी एटले के पुद्गलना सामर्थ्यथी थाय छे, आत्मानुं किंचित् पण बळ तेमां चालतुं नथी; अने दया के
हिंसा वगेरे रागने बनावे एवुं पण खरेखर आत्मानुं सामर्थ्य नथी. द्रव्य–गुण–पर्यायमय अखंडतत्त्वने
स्वरूपमां टकावी राखे एवी आत्मानी वीर्यशक्ति छे, अहीं शक्तिना वर्णन द्वारा