Atmadharma magazine - Ank 103
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १३६ः आत्मधर्मः १०३
एटले आत्मामां मोक्षमार्ग शरू थई जाय छे.
वस्तुनी अनादिअनंत पर्यायो वस्तुना स्वभावमां अनादिथी निर्माण थई गयेली छे, ईश्वर वगेरे कोई
बीजो पदार्थ तेनी पर्यायनुं निर्माण करनार नथी. जीवनी पर्यायने बीजो तो न फेरवे, पण जीव पोतेय पोतानी
पर्यायना क्रमने तोडीने तेने आघी पाछी करी न शके. अहीं कोईने एम शंका थाय के–जो द्रव्य पोते पण पोतानी
अवस्थामां फेरफार न करी शके तो तो पुरुषार्थ न रह्यो! तेनुं समाधानः भाई! ए वात घणी वार कहेवाई गई
छे के पोतानी त्रणेकाळनी पर्यायो पोताना द्रव्यमांथी ज आवे छे एम जेणे नक्की कर्युं छे तेनी द्रष्टि पोताना
स्वद्रव्य उपर पडी छे ने तेमां ज मोक्षनो परम पुरुषार्थ समाई जाय छे. मारी पर्याय परमांथी नहि आवे पण
मारा द्रव्यस्वभावमांथी ज आवशे, अने तेमां फेरफार नहि थाय–आम नक्की करनारे कोनी सामे जोईने ते नक्की
कर्युं छे? निमित्त सामे के पर्याय सामे जोईने ते नक्की थतुं नथी, पण बधी पर्यायो थवानो धर्म जेनामां भर्यो छे
एवा अखंड द्रव्यनी सामे जोईने ज ते नक्की थाय छे. आ रीते आमां द्रव्यना आश्रयनो अपूर्व पुरुषार्थ आवी
जाय छे, ने ते ज मोक्षनो पुरुषार्थ छे.
द्रव्यनयथी जोतां भूत–भावीनी पर्यायरूपे द्रव्य जणाय छे–एवो तेनो एक धर्म छे. आचार्यदेवे वस्तुना
धर्मोनुं जे वर्णन कर्युं छे तेमां घणी गंभीरता छे. द्रव्यनयवाळो साधक एम जाणे छे के वर्तमानमां ज मारा द्रव्यमां
भविष्यनी पर्याय थवानो स्वभाव पडयो छे एटले सत्नो ज उत्पाद थाय छे अने मारी पर्याय प्रगटवा माटे मारे
कयांय पराश्रय सामे जोवानुं रहेतुं नथी पण मारा सत् द्रव्यनी सामे ज जोवानुं रहे छे. द्रव्यनो जे समये जेवी
पर्याय थवानो स्वभाव छे ते समये तेवी ज पर्याय थाय, तेवो ज विकल्प आवे अने तेवो ज संयोग होय. आम
नक्की करनारने शुं करवानुं रह्युं?–के जेमांथी पर्यायो प्रगटे छे एवुं पोतानुं त्रिकाळी सत् द्रव्य केवुं छे तेनुं ज्ञान
करीने तेमां एकाग्र थवानुं ज रह्युं; ए सिवाय कयांय परमां के पोतानी पर्यायमां फेरफार करवानुं रहेतुं नथी.
शंकाः– आत्मा परमां तो कांई फेरफार न करी शके–ए तो ठीक, पण पोतानी पर्यायोमां फेरफार करवामां
पण तेनो काबु नहि?
समाधानः– अरे भाई! ज्यां द्रव्यने नक्की कर्युं त्यां वर्तमान पर्याय पोते द्रव्यमां वळी ज गई, पछी
तारी कोने फेरववुं छे? मारी पर्याय मारा द्रव्यमांथी आवे छे एम नक्की करतां ज पर्याय द्रव्यमां अंतर्मुख थई
गई, ते पर्याय हवे क्रमेक्रमे निर्मळ ज थया करे छे अने शांति वधती जाय छे. आ रीते पर्याय पोते ज्यां द्रव्यमां
अंतर्मग्न थई गई त्यां तेने फेरववानुं क्यां रह्युं? ते पर्याय पोते द्रव्यना काबुमां आवी ज गयेली छे. पर्याय
आवशे क्यांथी?–द्रव्यमांथी, माटे ज्यां आखा द्रव्यने काबुमां लइ लीधुं (–श्रद्धा–ज्ञानमां स्वीकारी लीधुं) त्यां
पर्यायो काबुमां आवी ज गई एटले के द्रव्यना आश्रये पर्यायो सम्यक् निर्मळ ज थवा मांडी. ज्यां स्वभाव नक्की
कर्यो त्यां ज मिथ्याज्ञान फरीने सम्यग्ज्ञान थयुं, मिथ्या श्रद्धा पलटीने सम्यक् दर्शन थयुं.–ए प्रमाणे निर्मळ
पर्यायो थवा मांडी ते पण वस्तुनो धर्म छे. वस्तुनो स्वभाव फर्यो नथी ने पर्यायना क्रमनी धारा तूटी नथी.
द्रव्यना आवा स्वभावनो स्वीकार करतां पर्यायनी निर्मळधारा शरू थई गई ने ज्ञानादिनो अनंतो पुरुषार्थ तेमां
भेगो ज आवी गयो.
स्व के पर कोई द्रव्यने, कोई गुणने के कोई पर्यायने फेरववानी बुद्धि ज्यां न रही त्यां ज्ञान ज्ञानमां ज
ठरी गयुं एटले एकलो वीतरागी ज्ञाता भाव ज रही गयो, तेने अल्पकाळमां मुक्ति थाय ज. बस! ज्ञानमां
ज्ञाताद्रष्टापणुं रहेवुं ते ज स्वरूप छे, ते ज बधानो सार छे. अंतरनी आ वात जेने ख्यालमां न आवे तेने
क्यांक परमां के पर्यायमां फेरफार करवानुं मन थाय छे; ज्ञाताभावने चूकीने क्यांय पण फेरफार करवानी बुद्धि ते
मिथ्या बुद्धि छे.
ज्ञानी धर्मात्माने चक्रवर्ती वगेरे पद आवे त्यां तेने एम नथी थतुं के आवी पर्याय आवी तेना करतां हुं
निर्धन होत तो! पोतानी जे भूमिका छे ते अनुसार पर्यायमां राग अने संयोग आव्या विना रहे नहि. चक्रवर्ती
आदि पर्याय थाय ते पण मारा द्रव्यनो ते प्रकारनो धर्म छे, द्रव्यमां जे जे पर्याय थवानो अनादि स्वभाव छे ते
पर्याय फरे नहि–आम जाणतो थको धर्मी पोताना द्रव्य तरफना वलणथी पर्यायनो ज्ञाता रहे छे; चक्रवर्ती पदमां
जे अल्प राग अने संयोग छे तेनो ते खरेखर ज्ञाता ज छे; ‘आवी पर्याय अने आवो संयोग केम आव्यो’
एवो विषमभाव तेना ज्ञानमांथी