
टळी गयो छे. ‘संयोगनी के रागनी भावना न होवा छतां वच्चे राग पर्याय केम आवी?’–एम ज्ञानीने शंका के
विषमभाव थतो नथी. ज्ञानी तो जाणे छे के संयोग तो माराथी पर छे अने राग पर्याय ते पण मारो त्रिकाळी
द्रव्य स्वभाव नथी. आम द्रव्य स्वभावनी द्रष्टिमां धर्मीने वीतराग भाव ज वधतो जाय छे. आनुं नाम सम्यक्
धर्म छे.
धर्मीने अंदरनी पवित्रतानी शंका पडती नथी. ते ते प्रकारनी विशेष पर्याय थाय एवो ते ते द्रव्यनो स्वभाव ज
छे. पोताना द्रव्यस्वभावने स्वीकारीने तेमां ज्यां पर्यायनी एकता थई त्यां मोक्षनुं प्रयोजन सिद्ध थई जाय छे,
पछी वच्चे तीर्थंकरादि विशेष पदवी होय के न होय–तेने ज्ञानी जाणे छे, पण तेनी साथे मोक्षमार्गनो संबंध नथी;
मोक्षमार्ग तो अंतरना अखंड द्रव्यना आश्रये ज छे.
जे थवानुं होय तेने जाणे पण जे थवानुं होय तेने कांई आघुं पाछुं न करी दे; तेम द्रव्यमां एवो एक
स्वभाव छे के तेमां भविष्यमां जे पर्याय थवानी होय ते पर्यायरूपे ते वर्तमानमां जणाय, पण ते पर्यायमां
फेरफार थाय–एवो तेनो स्वभाव नथी. ज्योतिषी शुं जुए? जे थवानुं होय ते जुए; भविष्यमां आ काळे
आवुं ग्रहण थशे–एम ते जाणे, पण शुं ते ग्रहणने फेरवी शके?–न ज फेरवी शके. बस! जेम थवानुं छे तेम
तेणे जाण्युं छे. तेम अहीं त्रिकाळी द्रव्यना अनादि अनंत पर्यायो थवानो जेवो धर्म छे तेवो ज्ञान जाणे छे;
ज्ञान तेनो निषेध न करे अने तेने फेरवे पण नहि. द्रव्यमां भविष्यनी जे जे पर्यायो थवानी होय ते पर्याय
थया पहेलां, वर्तमानमां पण, तेनामां ते ते पर्यायो थवानो धर्म रहेलो छे; अने ते भाविपर्यायपणे द्रव्यने
वर्तमानमां जाणी ल्ये एवो श्रुतज्ञाननो एक प्रकार छे, तेनुं नाम द्रव्यनय छे. वस्तुनी अनंत पर्यायोमांथी
दरेकने जुदी पाडीने श्रुतज्ञानी भले न जाणी शके, पण सामान्यपणे तो तेना निर्णयमां आवी गयुं छे के
द्रव्यमां त्रण काळनी जे जे पर्यायो छे ते बधी पर्यायो थवानो द्रव्यनो पोतानो स्वभाव छे. आवो निर्णय
होवाथी कोई पण पर्याय वखते धर्मीने द्रव्यद्रष्टि खसती नथी. आवो द्रव्यस्वभाव समज्या पछी तेनुं घुंटण
अने तेमां एकाग्रता रहे तेनुं नाम चारित्र छे.
आत्मा जणाय–एवो तेनो धर्म छे, अने श्रुतज्ञाननो तेवुं जाणवानो स्वभाव छे.
द्रव्यनयथी जाणे छे. आ नयो सम्यग्द्रष्टि–ज्ञानीने ज होय छे. भविष्यमां सिद्धपर्याय थवानो जेना द्रव्यनो
स्वभाव छे अने जेनुं पोतानुं ज्ञान भावि–सिद्धपर्यायपणे पोताना द्रव्यने जाणनार छे एवा सम्यग्ज्ञानीनी ज
अहीं वात छे. तेने ज यथार्थ द्रव्यनय होय छे. अभव्य वगेरेने कदी सिद्धपर्याय थवानी नथी, तेम ज तेनामां ते
प्रकारनी पर्यायपणे द्रव्यने जाणे एवो नय पण होतो नथी. ते पोते पोताना द्रव्यस्वभावने जाणतो नथी. तेना
द्रव्यना स्वभावने के भूत–भावि पर्यायने बीजा श्रुतज्ञानी जाणे छे, पण ते पोते पोताने जाणतो नथी; अने जे
जीव पोते जाणे छे तेने पोताने तो भविष्यमां सिद्धपर्याय थवानो ज स्वभाव छे; सिद्ध–पर्याय न थवानी होय
तेवा जीवो तो तेने परज्ञेयमां छे, स्वज्ञेयमां तो सिद्धपर्याय थवानी ज छे. आ वात जाणे अने तेने मोक्षपर्याय न
थाय एम बने ज नहि. अभव्यनी अहीं वात नथी; अहीं तो जे पोते पोताना स्वभावने ज्ञाननुं ज्ञेय बनावीने
जाणे एवा मोक्षगामी जीवनी ज वात छे; ज्ञाननी अने वस्तुना स्वभावनी एकतानी वात छे. नयोद्वारा
वस्तुस्वभावने साधीने तेमां ज्ञाननी एकता करवा माटे अहीं नयोथी आत्मानुं वर्णन कर्युं छे. आ वात
आचार्यदेव १९ मा कलशमां कहेशे के “आ रीते स्यात्कारश्रीना वसावटने वश