Atmadharma magazine - Ank 103
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १४०ः आत्मधर्मः १०३
श्रद्धानी एकेक समयनी पर्यायमां एवी त्रेवड छे के आखा परिपूर्ण द्रव्यने ते प्रतीतमां लई ले छे. श्रद्धा–
ज्ञान–आनंद वगेरे गुणोनी एकेक पर्याये द्रव्यनी अखंडताने टकावी राखी छे. जो ज्ञान वगेरे कोई पण गुणनी
एक ज पर्याय काढी नाखो तो गुणनुं अनादि–अनंत अखंडपणुं रहेतुं नथी, अने गुण अखंड न रहेतां द्रव्य पण
अखंड रहेतुं नथी; माटे एकेक पर्यायमां पण प्रभुत्व छे. द्रव्य अनंत गुणनो पिंड छे ने गुण अनादि अनंत
पर्यायोनो पिंड छे; एटले द्रव्यनी प्रभुता तेना समस्त गुणोमां ने समस्त पर्यायोमां फेलायेली छे, ते बधाय
स्वतंत्रताथी शोभी रह्यां छे. आत्मानी अनंत शक्तिओमांथी जो एक शक्तिने पण काढी नांखो तो द्रव्यनी
प्रभुता खंडित थई जाय; तेम ज ज्ञान–दर्शन–अस्तित्व वगेरे कोई एक गुणनी एक समयनी अवस्था काढी
नांखो तो पण गुण अनादि अनंत अखंड नथी रहेतो पण ते खंडित थई जाय छे. अहीं एकेक समयनी पर्यायनी
पण प्रभुता सिद्ध थाय छे.
पर्याय एक समयनी ज छे माटे तेने तुच्छ–असत् माने ने तेनी स्वतंत्र प्रभुता न स्वीकारे, तो पर्यायनी
प्रभुता वगर द्रव्यनी अखंड प्रभुता ज सिद्ध नहि थाय. जेम कोई माणस १०० वर्षनी उंमरनो होय, तेना १००
वर्षमांथी एक समय पण जो काढी नांखो तो तेनुं १०० वर्षनुं अखंडपणुं नथी रहेतुं पण एक तरफ प० वर्ष
अने बीजी तरफ प० वर्षमां एक समय ओछो–एम बे खंड पडी जाय छे; तेम जो द्रव्यना एक पण पर्यायनी
सत्ताने काढी नांखो तो द्रव्यनो प्रताप खंडित थई जाय छे, पर्याय वगर आखुं द्रव्य ज सिद्ध थई शकतुं नथी. आ
रीते द्रव्यनी एकेक पर्यायमां पण अखंड प्रताप छे.–आवी आत्मानी प्रभुताशक्ति छे.
आत्मानी प्रभुता असंख्य प्रदेशमां व्यापेली छे, जेम एकेक पर्यायमां प्रभुता छे तेम एकेक प्रदेशमां पण
प्रभुता छे, प्रदेशे प्रदेशे प्रभुता भरी छे. अनादिअनंत एक प्रदेश बीजा प्रदेशरूपे थतो नथी. बीजा अनंत
जीवोना अनंत प्रदेशोथी भिन्न पोतानुं स्वाधीन अस्तित्व ते टकावी राखे छे–एवी प्रदेशनी प्रभुता छे. आत्मामां
पर्यायनी प्रभुता अने प्रदेशनी प्रभुतामां एटलो फेर छे के एक पर्याय तो आत्माना सर्वक्षेत्रमां–बधा प्रदेशमां
व्यापक छे, पण एक प्रदेश सर्वप्रदेशोमां व्यापक नथी; पर्याय सर्वप्रदेशमां व्यापक छे पण ते एक ज समय पूरती
छे, अने एक प्रदेश सर्वप्रदेशमां व्यापक न होवा छतां ते त्रिकाळ छे. क्षेत्र भले नानुं होय तो पण तेमां य प्रभुता
छे, ने पर्यायनो काळ भले ओछो होय तो पण तेमांय प्रभुता छे. भगवान आत्मानो कोई अंश प्रभुताथी
खाली नथी. जो पोताना आत्मानी आवी अखंड प्रभुता जाणे तो कोई पर वस्तुने प्रभुता न आपे एटले के
परनो आश्रय न करे, पराश्रय छोडीने पोतानी प्रभुतानो आश्रय करे एनुं नाम धर्म छे ने ए ज मुक्तिनो
उपाय छे. आत्मानी प्रभुताना स्वीकारमां स्वाश्रयनो स्वीकार छे ने स्वाश्रयना स्वीकारमां मुक्ति छे. जो कोई
निमित्त संयोग वगेरे परना आश्रये लाभ माने तो पोतानी प्रभुतानी प्रतीत रहेती नथी, तेम ज पर्यायमां
थता अल्प विकारने प्रभुता आपी दे तोपण पोतानी प्रभुतानी प्रतीत रहेती नथी. संयोग अने विकार वगरनी
आत्मानी अनंत गुणोथी अखंड प्रभुता छे.
अज्ञानी कहे छे के द्रव्य–गुणमां तो स्वतंत्र प्रभुता छे, पण पर्याय परना आश्रये थाय छे. जेणे पर्यायने
परना आश्रये थती मानी छे तेणे खरेखर द्रव्य–गुणनी स्वाधीन प्रभुताने पण जाणी नथी. ज्यां द्रव्य–गुणनी
प्रभुताने स्वीकारी त्यां पर्याय पण द्रव्य–गुण तरफ वळी गई ने तेमां पण प्रभुता थई गई; आ रीते द्रव्य–
गुणनी सन्मुख वळ्‌या विना द्रव्य–गुणनी प्रभुताने पण खरेखर स्वीकारी न कहेवाय. जो खरेखर द्रव्य–गुणनी
प्रभुता स्वीकारे तो पर्यायनुं वलण पराश्रयथी छूटीने अंतर्मुख थया विना रहे नहि. जेम त्रिकाळी द्रव्यगुण सत्–
अहेतुक छे तेम एकेक समयनी पर्याय पण सत्–अहेतुक छे. पर्यायनुं कारण परवस्तुओ तो नथी, तेम ज जो
पर्यायनुं कारण द्रव्य–गुणने कहो तो ते द्रव्य–गुण तो बधा जीवोने एक सरखा छे छतां पर्यायमां फेर केम पडे
छे? माटे दरेक पर्यायमां पोतानी अकारणीय प्रभुता छे. पर्यायनुं आवुं निरपेक्षपणुं कबुल करतां पर्यायनुं निर्मळ
परिणमन ज थतुं जाय छे; केम के निरपेक्षता कबुल करनारी पर्याय स्वद्रव्य तरफ झूकेली छे. अहो! द्रव्यनो अंशे
अंश स्वतंत्र छे, एक अंशमात्र पण पराधीन नथी.–आवी प्रतीत करनारने स्वभाव–आश्रित निर्मळ परिणमन
ज थई रह्युं छे.
प्रभुत्वशक्तिए आखा आत्माने प्रभुता आपी छे; एकला प्रभुत्वगुणमां ज प्रभुता छे एम नथी, पण
आखा द्रव्यमां, तेना समस्त गुणोमां तेम ज दरेक पर्यायमां