Atmadharma magazine - Ank 103
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः २४७८ः १३१ः
शुद्धात्माना निर्विकल्प अनुभव माटे झंखतो शिष्य
श्री समयसारनी पहेली ज गाथामां आचार्यदेवे आत्मामां सिद्धपणानी स्थापना करी के हुं सिद्ध अने
तुं पण सिद्ध. सिद्ध–भगवानना आत्मामां अने आ आत्मामां स्वभावथी कांई फेर नथी. आ वातनो घणी
अपूर्व रुचिथी स्वीकार करीने शिष्यने पोतानो शुद्धात्मा समजवानी झंखना थई. तेथी ते शुद्धात्मानुं स्वरूप
जाणवानी जिज्ञासाथी तेणे प्रश्न पूछयो के हे नाथ! एवो शुद्ध आत्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए!
हे प्रभो! जे शुद्ध आत्माने जाण्या विना हुं अत्यार सुधी रखडयो, ते शुद्धात्मानुं स्वरूप शुं छे? ते कृपा करीने
मने बतावो.
आवा शिष्यने शुद्ध आत्मानुं स्वरूप समजाववा श्री आचार्यप्रभुए छठ्ठी गाथामां ‘ज्ञायकभाव’ नुं
वर्णन कर्युं; त्यां विकारनो अने पर्याय भेदनो तो निषेध कर्यो, पण हजी गुणभेदरूप व्यवहारना निषेधनी वात
त्यां आवी न हती. तेथी सातमी गाथानी शरूआतमां श्री आचार्यदेवे शिष्यना मुखमां प्रश्न मुकाव्यो छे के प्रभो!
दर्शन–ज्ञान–चारित्रना भेदथी पण आ आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे, अर्थात् ‘आत्मा ज्ञान छे–दर्शन छे–
चारित्र छे’ एम लक्षमां लेवा जतां पण भगवान शुद्ध आत्मानो अनुभव थतो नथी मात्र विकल्पनी उत्पत्ति
थईने अशुद्धतानो अनुभव थाय छे, तो तेनुं शुं करवुं?
जुओ! शिष्यना प्रश्नमां सूक्ष्मता! कोई बहारनी वातने ते याद नथी करतो, शरीरनी क्रिया के पुण्य–
पापनी वात पण नथी पूछतो; अंदरमां गुणगुणी भेदनो विकल्प ऊठे छे ते पण तेने खटके छे एटले तेनाथी
आगळ वधीने शुद्ध आत्मानो निर्विकल्प अनुभव करवा माटे तेने आ प्रश्न ऊठयो छे. छठ्ठी गाथामां श्री
गुरुजी पासेथी महा विनय अने पात्रतापूर्वक ज्ञायक स्वरूपनुं श्रवण करीने तेवो अनुभव करवा माटे अंतर
मंथन करतां करतां ‘हुं ज्ञायक छुं’ एम लक्षमां लेवा मांडयुं; परंतु तेमां गुणगुणी भेदनो विकल्प ऊठयो.
त्यां पोतानी शुद्धात्मरुचिना जोरे शिष्ये एटलुं तो नक्की करी लीधुं के हजी आ गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठे
छे ते पण शुद्धात्माना अनुभवने रोकनार छे, आ विकल्प छे ते अशुद्धता छे तेथी ते पण निषेध करवा जेवो
छे. शिष्यने रुचि अने ज्ञानमां एटली तो सूक्ष्मता थई गई छे के गुणगुणीभेदना विकल्पथी पण
शुद्धआत्मानो अनुभव पार छे–एम नक्की करीने ते गुणगुणीभेदना विकल्पथी पण छूटो पडवा मागे छे;
गुणगुणीभेदना विकल्पथी पण आगळ कांईक अभेद वस्तु छे तेने लक्षमां लईने तेनो अनुभव करवा माटे
अंतरमां ऊंडो ऊंडो ऊतरतो जाय छे. अने ते वात श्री गुरुना मुखथी सांभळवा माटे विनयथी पूछे छे के
प्रभो! ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेदथी आत्माने लक्षमां लेवा जतां गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठे छे ने
अशुद्धतानो अनुभव थाय छे, तो शुं करवुं?
श्री आचार्यभगवान पण शिष्यनी अत्यंत निकट पात्रता देखीने तेने शुद्धआत्मानुं स्वरूप समजावे छे;
शिष्यना प्रश्ननो उत्तर आपतां सातमी गाथामां कहे छे के आ भगवान ज्ञायक एक आत्मामां ज्ञान–दर्शन–
चारित्र एवा गुणभेद व्यवहारथी ज कहेवामां आव्या छे, परमार्थथी तो भगवान आत्मा एक अभेद छे. माटे
‘एक अभेद ज्ञायक आत्मा’ ने लक्षमां लईने अनुभव करतां, ‘हुं ज्ञान छुं’ इत्यादि गुणगुणीभेदना विकल्पोनो
पण निषेध थई जाय छे ने शुद्धआत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय छे.
श्री समयसार गा. ७ उपरना प्रवचनमांथी
वीर सं. २४७७ अषाड वद २