Atmadharma magazine - Ank 104
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 21

background image
ः १६०ः आत्मधर्मः १०४
ईंद्रियो तेम ज रागना अवलंबन वगर ज आत्मानी चैतन्यसत्तामां ज्ञाननुं कार्य थाय छे. माटे नक्की थाय छे के
ईंद्रियोथी के रागथी चैतन्यसत्ता जुदी छे. अनंतगुणनो एकरूप गांठडो अंदरमां भासे छे ते कोनी हयातीमां
भासे छे? रागनी सत्तामां के जड ईंद्रियोनी सत्तामां ते भासतो नथी पण चैतन्यसत्तानी हयातीमां ज
अनंतगुणनो एकरूप गांठडो भासे छे. ते चैतन्य सत्ताना स्वीकारथी धर्मनी शरूआत थाय छे.
शरीरादि परवस्तुनो तो आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां त्रिकाळ अभाव छे. जे क्षणपूरता रागादि
व्यवहार परिणाम थाय छे ते आखा द्रव्यमां के तेना गुणोमां व्यापता नथी, बधा गुणनी पर्यायमां पण ते
रागादि व्यापता नथी अने एक गुणनी बधी पर्यायोमां पण ते व्यापता नथी, मात्र एक गुणनी एक पर्यायमां
समय पूरता ज ते रागादि भावो छे. ज्यारे ते ज वखते आ बाजु अंतरमां अनंत गुण–पर्यायमां त्रिकाळ
व्यापक अखंड विभुतावाळो भगवान आत्मा छे.–तो कोनी मुख्यता करवी? कोनो आदर–बहुमान करवुं?–
क्षणिक रागनुं के अखंड विभुतावाळा आत्मानुं? अखंडविभुनो अनादर करीने तूच्छ रागनो आदर करवो ते
महान अधर्म छे; धर्मी जीव तो अखंड विभु एवा निज आत्मानो ज आदर करे छे, धर्मीनी अंर्तद्रष्टिमां
रागनो अभाव छे.
आ पहेलां आचार्यदेवे १८२ मा कलशमां पण आत्माने ‘विभु’ कह्यो हतो. त्यां कह्युं हतुं के विभु एवा
शुद्ध चैतन्यभावमां तो कोई भेद नथी; समस्त विभावोथी रहित शुद्धचैतन्यभाव ते विभु छे. त्यां सर्व गुण–
पर्यायोमां व्यापक एवो विभुनो अर्थ कर्यो हतो. आत्मा अने तेनो दरेक गुण समस्त गुण–पर्यायोमां व्यापक छे
एवी आत्मानी विभुता छे. बहारनी लक्ष्मी वगेरेनी विभुता आत्मामां नथी. जे जीव पोताना शुद्धचैतन्य
विभुत्वनो विश्वास करे तेने अनंत गुणनी विभूति–केवळज्ञानादि निजवैभव प्रगटे.
ज्ञानमात्र आत्मामां आ विभुत्व वगेरे अनंती शक्तिओ एक साथे ज रहेली छे.
अहीं आठमी विभुत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
***
र्तमानमां ज त्रिका
दरेक वस्तु वर्तमानपणे वर्ती रही छे; वर्तमान वर्तता
द्रव्यमां ज त्रिकाळ टकवारूप सामर्थ्य छे. वर्तमान एक समयमां
त्रिकाळ टकवारूप एकरूप सामर्थ्य ते द्रव्य छे. आत्माने ‘अखंड
ज्ञायक’ कहीने त्रिकाळी एकरूप द्रव्यस्वभाव जणाववो छे. समय
समय वर्तीने त्रिकाळ थाय छे–एम ‘त्रिकाळथी’ (काळना
लंबाणथी) ज्ञायकने लक्षमां लेवो तेम समजवानुं नथी, पण
चैतन्यमूर्ति आत्मा त्रिकाळ टकनारी अनंत शक्तिसामर्थ्यरूपे
वर्तमानमां ज पूरो छे एम समजवानुं छे, अर्थात् जे वर्तमानमां
ज छे ते त्रिकाळ छे. वर्तमानमां ज हुं अखंड पूरो छुं एवी जे द्रष्टि
ते द्रव्यद्रष्टि छे ने ते ज सम्यक् द्रष्टि छे. ते द्रष्टि प्रगट थवामां
अनंत पुरुषार्थ छे, अने ते थतां दर्शनमोह तथा अनंतानुबंधी
कषायनो अभाव थाय छे.
(जुओ स. प्र. भाग १ पृः १प९)