Atmadharma magazine - Ank 104
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७८ः १६१ः
धर्मी जीवनी द्रष्टि कोना उपर छे?
महत्वनुं कार्य शुं?
नादि अनंत आत्माने एकरूप, अखंड, अभेद ज्ञायकपणे जाणे तेणे ज तेनुं वास्तविक स्वरूप जाण्युं
कहेवाय. आत्मानुं अखंड स्वरूप जेना ध्यानमां नथी तेने तेनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी. ‘अनादि अनंत’ कहेतां
काळ उपर लक्ष नहि देतां अनंत गुणनो अखंड पिंड पोतापणे त्रिकाळ टकनारो, वर्तमानमां पूर्ण शक्तिरूप, धु्रव
छे, तेने लक्षमां लेवो, तेनामां त्रणे काळनी अनंत शक्ति वर्तमानमां अभेदपणे भरी पडी छे. आवा अखंड
द्रव्यस्वभावनी द्रष्टि ते ज सम्यग्द्रष्टि छे.
पर संयोगनी अपेक्षा छोडीने अने वर्तमान अवस्थाना भेदने गौण करीने, वर्तमान अवस्था पाछळ जे
सामान्य, त्रिकाळी शुद्ध, श्रद्धा–ज्ञान अने आनंद वगेरे अनंतगुणोथी भरपूर अखंड स्वरूप छे तेनुं लक्ष करतां
अखंड ज्ञायकपणे जे जणायो ते ज परमार्थस्वरूप आत्मा छे. ते ज्ञायकपणे जणायो ते ज हुं छुं–एम अंतरथी
मानवुं ते सम्यग्दर्शन छे. हुं अखंड ज्ञायकज्योत एकरूप छुं, अनंतकाळ टकनार वर्तमानमां परिपूर्ण छुं–एम
प्रगट शुद्ध ज्ञायकभावने लक्षमां लईने अंतरमां अनुभवथी जाणवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. आमां जे कांई गूढ हतुं ते
घणुं स्पष्ट करीने कह्युं छे, पण हाथमां लईने बतावाय तेवुं नथी; केमके वस्तु तो अंर्तअनुभवनो विषय छे.
जाते तैयार थई, झीली, ओगाळीने अंतरमां पचावे तो अवश्य गुण थाय.
आवुं वस्तुस्वरूप समजवुं ए ज खरेखर महत्वनुं कार्य छे. आत्मानो निरपेक्ष, अभेद, आखो स्वभाव
वर्तमानमां साक्षात् शुद्धपणे जे रीते छे ते रीते अनादिथी लक्षमां लीधो नथी. परथी जुदा एकत्वनी वात कदी
प्रीतिथी सांभळी पण नथी, तेथी समजवुं मुश्केल लागे छे. पण ‘समज पीछे सब सरल है.’ सम्यग्दर्शन
प्रगटवा माटे शरूआतमां ज समजवानी आ वात छे. वर्तमानमां दरेक समये आत्मा पूर्ण स्वरूप होवाथी तेने ज
श्रद्धानो विषय (लक्ष्य–ध्येय) बनावी शुद्ध अखंडपणे लक्षमां लेवा जेवो छे. ते शुद्ध आत्मा ज सम्यग्दर्शननो
विषय छे. वर्तमान विकारी अवस्था तथा अधूरी निर्मळ पर्याय तेने गौण करीने, वर्तमान वर्तती एक एक
अवस्था साथे ज दरेक समयमां अनंत चैतन्यशक्तिरूपे जे आखो सामान्य धु्रव स्वभाव छे ते धर्मी जीवनी
द्रष्टिनो विषय छे. तेना उपर द्रष्टि करीने तेने लक्षमां लेवो ते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे, अने ते ज
धर्मीजीवनुं महत्वनुं कार्य छे.
(समयसार–प्रवचनो भाग १ पृष्ट १६२–३ उपरथी)
***
* ध्यान राखजो *
आत्मद्रव्य एकरूप ज्ञायकपणे वर्तमानमां पूर्ण छे, ते
धु्रवस्वभावनी द्रष्टि ते सम्यक् द्रष्टि छे. ध्यान राखजो के आ
अलौकिक वस्तु छे. अनंत काळथी स्वभावनी वात समजाणी
नथी, एटले वस्तुनो परम गंभीर महिमा लावी, लक्ष राखी
समजवुं जोईए. वस्तुनी श्रद्धा विना सम्यग्ज्ञान–चारित्र होय
शके नहि. ‘आ अघरुं छे माटे न समजाय’ ए वात काढी
नांखजो. अनादिनो अणअभ्यास छे तेथी आत्मस्वरूप समजवुं
मोंघुं लागे छे; पण जो तेनो परम महिमा लावीने समजवा
मांगे तो स्वविषय छे तेथी समजाय ज.
(स. प्र. भाग १ः पृ. १६०)