Atmadharma magazine - Ank 104
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १६२ः आत्मधर्मः १०४
* ‘निकटवर्ती
शिष्यजनने श्री आचार्योनो उपदेश’ *
जे हजी शुद्ध ज्ञायक आ आत्माने समजयो नथी पण ते समजवानी जेने धगश छे एवा निकटवर्ती
शिष्यजनने समयसारमां आचार्यदेव शुद्धआत्मानुं स्वरूप समजावे छे; आत्माने अने तेना धर्मोने स्वभावथी
अभेदपणुं छे तोपण तेमां नामथी भेद उपजावीने व्यवहारमात्रथी ज एवो उपदेश छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान
छे, चारित्र छे.
कथनमां भेद आवतो होवा छतां उपदेशकनो अभिप्राय अभेद आत्मस्वभाव बताववानो छे, तेम
सांभळनार शिष्यने विकल्प होवा छतां तेनुं वलण तो अभेद आत्मस्वभावने समजवानुं ज छे. आवो शिष्य
अल्पकाळे अभेद आत्मा समजी जवानो छे तेथी तेने ‘निकटवर्ती’ कह्यो छे; निमित्त तरीके श्री गुरुनो निकटवर्ती
छे ने उपादान तरीके पोताना आत्मस्वभावनो निकटवर्ती छे.
शिष्यने ‘निकटवर्ती’ कह्यो तेमां एकली क्षेत्रनी निकटतानी वात नथी परंतु भावथी पण निकटता
छे, एटले के जेवुं स्वरूप श्री गुरु समजावे छे तेवुं झीलीने समजवानी तैयारीवाळो छे. कोई जीव क्षेत्रथी
भले भगवानना समवसरणमां बेठो होय छतां अंदर जो तेने रागनी अने व्यवहारनी रुचि होय तो ते
खरेखर निकटवर्ती शिष्य नथी; अने एकवार पण श्रीगुरु पासेथी परमार्थ आत्मस्वरूपनी वात साक्षात्
सांभळीने जेने ते रुचि छे एवो शिष्य क्यारेक क्षेत्रथी दूर होय तोपण अंतरनी रुचि अपेक्षाए तो ते
निकटवर्ती छे.
जुओ, समजावनार उपदेशक केवा होय अने समजनार शिष्य केवो होय ते वात आमां आवी जाय छे.
समजावनार उपदेशक एवा होवा जोईए के जेओ शुद्ध आत्मा बतावीने तेनो ज आश्रय कराववा मांगता होय;
ए सिवाय निमित्तना के व्यवहारना आश्रयथी धर्म मनावता न होय. अने समजनार शिष्य पण एवो होय के
पोताना शुद्धात्माने समजीने तेनो आश्रय करवा मांगतो होय, ए सिवाय विकारना के भेदना आश्रयनी रुचि
तेने न होय. आवा निकटवर्ती शिष्यने श्री गुरु आत्मानुं स्वरूप समजावे छे के जो भाई! आत्मा ज्ञान–दर्शन–
चारित्र स्वरूप छे. आम समजावतां वच्चे गुण–गुणीना भेदरूप व्यवहार आवे छे खरो, पण समजावनारनुं के
समजनारनुं वजन ते भेद उपर नथी, श्री गुरुनुं प्रयोजन अभेद आत्माने देखाडवानुं छे अने शिष्य पण तेवा
ज आत्मानो अनुभव करवा मांगे छे.
शिष्यने हजी शुद्धात्माना विकल्पवाळो शुद्धनय छे, परंतु तेनी रुचिनुं जोर विकल्प उपर नथी पण अभेद
स्वरूप तरफ छे, एटले शुद्ध आत्मानो अनुभव करीने ते विकल्पने तोडी नांखशे. अनादि काळमां जीवने
शुद्धनयनो जे विकल्परूप पक्ष थयो छे तेनी आ वात नथी, आ तो अभेद स्वरूपमां ढळवा माटेनो विकल्प छे,
शिष्यना लक्षमां विकल्पनुं प्रयोजन नथी पण अभेदस्वरूपमां ढळवानुं ज प्रयोजन छे; तेथी ते विकल्प तूटीने
अभेद आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय ज–एवी ज वात अहीं लीधी छे.
श्री गुरु अभेद आत्मानुं स्वरूप समजाववा माटे उपदेश आपे छे, तो तेमनो उपदेश झीलीने अभेद–
आत्मानो अनुभव करनार शिष्य पण सामे छे ज. दातार जागे अने दान लेनार न नीकळे एम बने नहि.–
तीर्थंकर भगवानना दिव्यध्वनिनो धोध छूटे अने ते झीलनारा श्री गणधरादि न होय एम बने नहि; श्री
महावीर भगवानने केवळज्ञान थया पछी छांसठ दिवस सुधी तो वाणी बंध रही पण अषाड वद एकमे ज्यां
वाणीनो धोध छूटयो त्यां सामे गणधरपद माटे गौतम तैयार हता. तेम अहीं अज्ञानी निकटवर्ती शिष्यने,
आत्मामां गुण–गुणीनो व्यवहारे भेद उपजावीने आचार्यदेव अभेदआत्मस्वरूप समजावे छे अने ते
तत्कालबोधक उपदेश पामीने शिष्यजन अंतरमां अभेदस्वभावनी सन्मुख थईने तुरत ज समजी जाय छे.–
आवा निकटवर्ती शिष्यजनने ज लीधा छे.
स्वभावथी तो आत्माने अभेदपणुं छे, भेदनो विकल्प ऊठे ते तेना स्वरूपमां नथी पण नवो उपजे छे–