अभेदपणुं छे तोपण तेमां नामथी भेद उपजावीने व्यवहारमात्रथी ज एवो उपदेश छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान
छे, चारित्र छे.
अल्पकाळे अभेद आत्मा समजी जवानो छे तेथी तेने ‘निकटवर्ती’ कह्यो छे; निमित्त तरीके श्री गुरुनो निकटवर्ती
छे ने उपादान तरीके पोताना आत्मस्वभावनो निकटवर्ती छे.
भले भगवानना समवसरणमां बेठो होय छतां अंदर जो तेने रागनी अने व्यवहारनी रुचि होय तो ते
खरेखर निकटवर्ती शिष्य नथी; अने एकवार पण श्रीगुरु पासेथी परमार्थ आत्मस्वरूपनी वात साक्षात्
सांभळीने जेने ते रुचि छे एवो शिष्य क्यारेक क्षेत्रथी दूर होय तोपण अंतरनी रुचि अपेक्षाए तो ते
निकटवर्ती छे.
ए सिवाय निमित्तना के व्यवहारना आश्रयथी धर्म मनावता न होय. अने समजनार शिष्य पण एवो होय के
पोताना शुद्धात्माने समजीने तेनो आश्रय करवा मांगतो होय, ए सिवाय विकारना के भेदना आश्रयनी रुचि
तेने न होय. आवा निकटवर्ती शिष्यने श्री गुरु आत्मानुं स्वरूप समजावे छे के जो भाई! आत्मा ज्ञान–दर्शन–
चारित्र स्वरूप छे. आम समजावतां वच्चे गुण–गुणीना भेदरूप व्यवहार आवे छे खरो, पण समजावनारनुं के
समजनारनुं वजन ते भेद उपर नथी, श्री गुरुनुं प्रयोजन अभेद आत्माने देखाडवानुं छे अने शिष्य पण तेवा
ज आत्मानो अनुभव करवा मांगे छे.
शुद्धनयनो जे विकल्परूप पक्ष थयो छे तेनी आ वात नथी, आ तो अभेद स्वरूपमां ढळवा माटेनो विकल्प छे,
शिष्यना लक्षमां विकल्पनुं प्रयोजन नथी पण अभेदस्वरूपमां ढळवानुं ज प्रयोजन छे; तेथी ते विकल्प तूटीने
अभेद आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय ज–एवी ज वात अहीं लीधी छे.
तीर्थंकर भगवानना दिव्यध्वनिनो धोध छूटे अने ते झीलनारा श्री गणधरादि न होय एम बने नहि; श्री
महावीर भगवानने केवळज्ञान थया पछी छांसठ दिवस सुधी तो वाणी बंध रही पण अषाड वद एकमे ज्यां
वाणीनो धोध छूटयो त्यां सामे गणधरपद माटे गौतम तैयार हता. तेम अहीं अज्ञानी निकटवर्ती शिष्यने,
आत्मामां गुण–गुणीनो व्यवहारे भेद उपजावीने आचार्यदेव अभेदआत्मस्वरूप समजावे छे अने ते
तत्कालबोधक उपदेश पामीने शिष्यजन अंतरमां अभेदस्वभावनी सन्मुख थईने तुरत ज समजी जाय छे.–
आवा निकटवर्ती शिष्यजनने ज लीधा छे.