एम बताववा माटे अहीं आचार्यदेवे कह्युं के ‘धर्म अने धर्मीनो स्वभावथी अभेद छे तोपण नामथी भेद
उपजावी–व्यवहारमात्रथी ज एवो उपदेश छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे.’ पण जे पंडित पुरुष
परमार्थथी अभेद आत्मस्वरूपनो अनुभव करे छे तेने गुण–गुणीना भेदनो विकल्प उपजतो नथी, तेने तो
आत्मा शुद्ध ज्ञायक ज छे. जुओ! आवा पोताना आत्माने समजवो ते ज खरुं कर्तव्य छे. आवा आत्माने जे
समजे तेने ज आचार्यदेव ‘पंडित’ कहे छे, आवो आत्मा समज्या वगरनी पंडिताई के त्याग ते तो बधुं
थोथां छे.
जिज्ञासाथी जेने प्रश्न ऊठयो छे–एवा, समजणना निकटवर्ती शिष्यजनने समजाववा माटे श्री आचार्यदेवने
विकल्प ऊठयो छे. आ पंचमकाळ छे एटले अहीं उपदेशक तरीके श्री तीर्थंकरदेवने नथी लीधा पण आचार्यने
लीधा छे. ते आचार्यदेव अभेद आत्मस्वरूप समजाववा माटे, अभेदमां पण भेद उपजावीने उपदेश करे छे; केम
के शिष्यने हजी अभेदस्वरूपना अनुभवनी खबर नथी तेथी तेने समजाववा माटे कथनमां भेद पाडीने
व्यवहारथी उपदेश आपे छे, पण त्यां प्रयोजन तो अभेदस्वरूप बताववानुं छे, व्यवहारनो आश्रय कराववानुं
प्रयोजन नथी; एटले भेदनो निषेध करीने अभेद स्वरूप तरफ वळे तो ज परमार्थ आत्मा समजाय छे, पण जो
भेदनो ज आश्रय करीने रोकाई जाय तो परमार्थ आत्मा लक्षमां आवतो नथी. जेम कोई माणस बीजाने
आंगळी चींधीने देखाडे के ‘जो, आ चंद्र!’ त्यां तेनुं प्रयोजन चंद्र देखाडवानुं छे, कांई आंगळी देखाडवानुं
प्रयोजन नथी. जो आंगळी सामे जोया करे तो चंद्र देखातो नथी पण आंगळीनुं लक्ष छोडीने चंद्र सामे लक्ष करे
त्यारे चंद्र देखाय छे; तेम ‘ज्ञान ते आत्मा’ एवा गुणगुणीना भेदरूप जे व्यवहारकथन छे तेनुं प्रयोजन पण
परमार्थस्वरूप आत्मा ज देखाडवानुं छे. सांभळनार ज्यारे भेदनुं लक्ष छोडीने अभेद स्वरूपने लक्षमां ल्ये छे
त्यारे ज भेदने व्यवहार कहेवाय छे, जो अभेदस्वरूप ने लक्षमां न ल्ये अने एकला व्यवहारना ज लक्षमां रोकाय
तो तेने माटे भेदने व्यवहार कहेवाय नहि. अहीं तो जेने अंतरमां अभेद ज्ञायक स्वभाव तरफ वळवानी रुचि छे
एवा निकटवर्ती शिष्यने लीधो छे.
ऊभो छे–एवो शिष्यजन द्रव्यथी ने भावथी निकटवर्ती छे.–आवो शिष्य अल्पकाळमां आत्मस्वरूप समजी जशे
अने तेने माटे आचार्यदेव निमित्त कहेवाशे. पण जे जीवने भेदनो–व्यवहारनो निषेध करीने अभेदस्वरूपमां
ढळवानी वात रुचती नथी ने व्यवहारना आश्रयथी धर्म मानीने तेनी ज पक्कडमां अटकयो छे ते जीव तो
समजवाने माटे निकटवर्ती नथी; तेना उपादानमां भेदनो निषेध करीने अभेदस्वरूपमां ढळवानी लायकात नथी
तेथी ते जीव आचार्यदेवने समजणनुं निमित्त कहे एवो प्रसंग तेने आववानो नथी, माटे आचार्यदेव निमित्तपणे
पण तेवा जीवने समजावता नथी.
पकडी लीधुं छे तेमने कांई भेदद्वारा अभेद समजाववानुं रह्युं नथी, अने जे जीव परमार्थस्वरूप समजवानो कामी
नथी तेने पण श्री आचार्यदेव उपदेशता नथी. जे जीव परमार्थ आत्मानुं स्वरूप समजवानो जिज्ञासु होय अने
आराधक थईने अल्पकाळे सिद्ध थाय–एवा ज जीवने अहीं आचार्यदेवे निकटवर्ती शिष्य तरीके लीधो छे. ‘हुं
सिद्ध अने तुं पण सिद्ध’–आम पहेलेथी आत्मामां सिद्धपणुं स्थापीने वात उपाडी छे. ते श्रवण करतां रुचिपूर्वक
जेणे पोताना आत्मामां सिद्धपणुं स्थाप्युं, तेणे पोते अल्पकाळमां सिद्ध थइ जवा माटे ते सिद्धपणुं स्थाप्युं छे.
आत्मानुं सिद्धपणुं स्वीकारीने उल्लासपूर्वक आ अभेद परमार्थआत्मानुं श्रवण करवा जे ऊभो छे ते निकटवर्ती
शिष्य परमार्थआत्मस्वरूप समजीने सिद्ध थई जशे.