अल्पज्ञता वखते पण सर्वज्ञस्वभावनो निर्णय
परिपूर्ण छे, तेनामां चेतनपणुं बिलकुल नथी. आत्मा त्रणेकाळे चेतनस्वरूप छे अने जड त्रणेकाळे
अचेतनस्वरूप छे.
नहि जाणनार तत्त्वमां कांई पण जाणपणुं होय तो ते अचेतन रहे नहि.
होय तेवुं पोताना ज्ञानथी जाणे–एवी आत्मानी ताकात छे, पण वस्तुना स्वरूपने फेरववानी ताकात तो
तीर्थंकरोमां पण नथी.
खरेखर भिन्न भिन्न छे, धर्मी जीवने पर्यायमां अल्प राग–द्वेष होवा छतां तेने अंतरमां एवुं भान छे के
आ राग–द्वेष ते मारुं खरुं स्वरूप नथी, मारुं स्वरूप तो अखंड ज्ञानमय छे. जे जीव अशुभ के शुभ कोई
पण जातना रागादिने पोतानुं स्वरूप माने तेणे पोताना आत्माने पूर्ण ज्ञानस्वरूपे मान्यो नथी. पूरा
ज्ञानमां राग–द्वेष न होय, ने ज्यां राग–द्वेष होय त्यां पूरुं ज्ञान न होय. आ रीते ‘हुं पूर्ण ज्ञानस्वरूप
छुं’ एम स्वीकारतां ज ‘हुं रागस्वरूप नथी’ एवुं भेदज्ञान पण आवी जाय छे. ज्ञान अने रागनी
एकतानी बुद्धि छूटया वगर अंतरमां शुद्ध आत्मानी रागरहित श्रद्धा के अनुभव थाय नहि. जो आत्माने
शुद्ध ज्ञानस्वरूपे ओळखीने तेनो महिमा करे अने तेमां ज आत्मबुद्धि करे, तो ते शुद्धज्ञान स्वरूपथी अन्य
समस्त परवस्तुओ अने परभावोमांथी आत्मबुद्धि छूटी जाय छे, एनुं नाम सम्यक्श्रद्धा अने सम्यग्ज्ञान
छे. जेने शुद्धज्ञान स्वरूपमां ज आत्मबुद्धि करी छे अने विकारमां आत्मबुद्धि छोडी दीधी छे ते जीवने
अनुक्रमे शुद्धज्ञान स्वरूपमां एकाग्रता थती जाय छे ने विकार टळतो जाय छे. एम करतां करतां छेवटे
संपूर्ण विकार टळी जाय छे ने ज्ञाननो पूर्ण विकास खीली जाय छे; ते आत्माने ‘सर्वज्ञ’ कहेवाय छे. ते
सर्वज्ञ परमात्माने सर्वज्ञदशा प्रगटया पहेलां राग–द्वेष हता, पण ते आत्मानुं खरूं स्वरूप न हतुं तेथी
टळी गया, अने पूर्णज्ञान प्रगटी गयुं. ते सर्वज्ञनी जेम आ आत्मानो स्वभाव पण पूर्णज्ञान स्वरूप छे,
पर्यायमां अधूरुं ज्ञान ते राग–द्वेष छे–ते तेनुं खरुं स्वरूप नथी.–आ प्रमाणे आत्मानी समजण करवी ते
धर्मनी पहेली रीत छे; आवा आत्मानी समजण कर्या वगर बीजी कोई रीते धर्मनी शरूआत थती नथी.
पूर्ण स्वभावना लक्षे ज धर्मनी शरूआत थाय छे, ए सिवाय परना लक्षे, विकारना लक्षे के अपूर्णताना
लक्षे धर्मनी शरूआत थती नथी.