Atmadharma magazine - Ank 104
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७८ः १६पः
वर्तमान पर्यायमां तो अधूरुं ज्ञान छे, तो ते अधूरा ज्ञानमां पूरा ज्ञान स्वभावनी खबर शी रीते
पडे?–एम कोईने प्रश्न ऊठे तो तेनुं समाधानः जेम आंख दोढ तसुनी होवा छतां आखा शरीरने जाणी ले
छे, तेम पर्यायमां ज्ञाननो विकास अल्प होवा छतां पण जो ते ज्ञान स्वसन्मुख थाय तो पूर्ण ज्ञानस्वरूपी
आत्माने स्वसंवेदनथी ते जाणे छे. केवळज्ञान थया पहेलां अधूरा ज्ञानमां पण स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी
पूर्णज्ञानस्वरूपी आत्मानो निःसंदेह निर्णय थाय छे. जेम ज्ञान बहारमां स्थूळ पदार्थोने जाणवामां अटकी
रह्युं छे, तेम ज्ञानने जो अंतर्मुख करो तो ते ज्ञान आत्माने जाणे छे. जे साकरनी नानी कटकी उपरथी
आखी साकरना स्वादनो निर्णय थई जाय छे, तेम ज्ञाननी अल्प पर्यायने अंतर्मुख करतां तेमां
पूर्णज्ञानस्वभावनो निर्णय थई जाय छे. कोई एम कहे के ‘अधूरुं ज्ञान पूरा आत्माने जाणी न शके, पूरुं
ज्ञान थाय त्यारे ज पूरा आत्माने जाणे’–तो तेनी वात जूठी छे. जो अधूरुं ज्ञान पूरा आत्माने न जाणी
शके तो तो कदी सम्यग्ज्ञान थाय ज नहि. अधूरुं ज्ञान पण स्वसन्मुख थईने आखा आत्मस्वभावने जाणे
छे तथा प्रतीत करे छे; आवुं ज्ञान अने प्रतीत करे त्यारे ज सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शन थाय छे. अधूरी
पर्याय ज्यारे अंतर्मुख थईने पूरा स्वभावमां अभेद थई त्यारे अधूरा–पूराना भेद उपर लक्ष न रह्युं, ने
परिपूर्ण द्रव्य ज श्रद्धा–ज्ञानमां आव्युं, तेनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. अवस्थामां पूर्णता प्रगटी
न होवा छतां अभेद द्रव्यने प्रधान करीने पूर्ण आत्माने देखवो तेनुं नाम ‘शुद्धनय’ छे. शुद्धनय ते
सम्यग्ज्ञाननो अंश छे. ते शुद्धनयनो एवो स्वभाव छे के अधूरी दशा वखते पण आत्माने शुद्ध–परिपूर्ण
स्वभावे ज ते देखे छे, रागादिभावोने ते पोतानुं स्वरूप मानतो नथी. ज्ञाननो उघाड अल्प होवा छतां जो
अंर्तस्वभाव तरफ वळीने ते स्वभावने कबुले तो ते सम्यग्ज्ञान छे अने ते मोक्षनुं कारण छे. अने
ज्ञाननो उघाड घणो होवा छतां जो अंतरस्वभाव तरफ न वळे ने रागादिने ज पोतानुं स्वरूप मानीने त्यां
अटकी जाय तो ते मिथ्याज्ञान छे.
आत्मा पर वस्तुओथी तो सदाय जुदो ज छे. आत्मामां पोतामां त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव अने क्षणिक
पर्यायस्वभाव एम बे पडखां छे; तेमा क्षणिक पर्याय करतां त्रिकाळी द्रव्यनुं माहात्म्य अनंतगणुं छे. तेथी
द्रव्य अने पर्याय बंनेना स्वरूपने जे ज्ञान यथार्थपणे जाणे ते ज्ञान द्रव्यस्वभावमां एकाग्र थया विना रहे
ज नहि.
जेम पांच मींडानी साथे एक एकडो होय, त्यां जो पांच मींडाने पहेलां मूकीने पछी एकडो मूको तो
(०००००१) ते संख्यानी किंमत मात्र ‘एक’ ज थाय छे, अने तेमां जो एकडाने अग्र बनावीने तेने पांच
मींडानी पहेलां मूको तो (१०००००) ते संख्यानी किंमत एक लाख गणी वधी जाय छे. आ तो एक द्रष्टांत छे.
तेम आत्मामां त्रिकाळी द्रव्य अने वर्तमान पर्याय बंने एक साथे छे; तेमां पर्यायने मुख्य करीने आत्मानो
अनुभव करतां ते अशुद्ध अने अपूर्णपणे ज जणाय छे; पण जो अखंड द्रव्यस्वभावने अग्र बनावीने–एटले के
द्रव्यने मुख्य करीने लक्षमां ल्यो तो आत्मा शुद्ध अने पूर्णस्वरूपे जणाय छे. वस्तुमां एकली अवस्थाने जुदी
पाडीने जोतां वस्तुनो पूर्ण महिमा जणातो नथी पण ते अपूर्ण भासे छे, पण पर्यायने अंतर्मुख द्रव्यमां एकाग्र
करीने द्रव्यनी प्रधानताथी आत्मानो अनुभव करतां स्वसंवेदन प्रत्यक्ष पूर्वक पूर्ण शुद्ध आत्मानुं अनुमान अने
प्रतीत थाय छे. आ रीते अधूरा ज्ञानमां पण स्वसंवेदनथी आत्मा जणाय छे. त्यां जेटला अंशे रागनुं अने
ईद्रियोनुं अवलंबन तूटीने स्वसंवेदन थयुं छे तेटलुं तो प्रत्यक्षपणुं छे, पण हजी पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान प्रगटयुं नथी
तेथी नय अने अनुमान पण छे.
ज्ञान अने रागनुं भेदज्ञान कर्या वगर एटले के ज्ञानने अंतरमां वाळीने अंशे रागरहित कर्या वगर पूर्ण
ज्ञानस्वरूप आत्मानुं संवेदन थाय नहि; ज्ञान अर्नंस्वभावमां एकाग्र थईने परिणम्युं ने रागपणे न
परिणम्युं–तेनुं नाम भेदविज्ञान अने धर्म छे.
(श्री समयसार कलश ४ उपर पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी. वीर सं. २४७६ श्रावद ७)