Atmadharma magazine - Ank 104
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १६६ः आत्मधर्मः१०४
कादवमां कमळ
आत्मज्ञानी संत गुहवासमां रह्या होवा छतां
अंतरथी उदास....उदास होय छे. अहो! तेमनी
अंतरदशानी शी वात! अज्ञानी करतां एमना काळजा
जुदा होय छे.....तेमना हृदयमां आंतरा होय
छे....एमना अंतर पलटा जुदा होय छे. अज्ञानी एने
क्यां काळजे मापशे?
धावमाता छोकराने नवरावे, धवरावे अने रमाडे
तेमज एनी सगी माता पण नवरावे, धवरावे अने
रमाडे; त्यां बंनेनी क्रिया एक सरखी देखाय छतां
भावमां धणां आंतरा होय छे. तेवी रीते अज्ञानी
अने ज्ञानीनी क्रिया बहारथी एक सरखी देखाय पण
भावमां धणा आंतरा होय छे.
ज्ञानी गृहस्थाश्रममां रह्या छतां एनुं अंतर हृदय
जुदुं ज होय छे. ते समजे छे के हुं परमानंदमूर्ति छुं,
एक रागनो कणियो पण मारो नथी; नबळाईने
लईने आ अस्थिरतमां जोडाउं छुं ते मारा आनंदनी
लूंट छे, मने कलंक छे; आ क्षणे वीतराग थवातुं होय
तो बीजुं कांई जोईतुं नथी.–आवुं ज्ञानीनुं हृदय छे.
आ तो ज्ञानीना हृदयनी थोडी व्याख्या थई,
बाकी ज्ञानीनुं हृदय केवुं निर्लेप छे ते साधारण केम
जाणी शके? ए तो जे जाणे ते जाणे! साधकना हृदय
बहारथी कल्पी शकाय तेवा नथी.
–समयसार–बंधअधिकारना प्रवचनो उपरथी