नयोद्वारा आत्मद्रव्यनुं वर्णन कर्युं छे तेना
उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना विशिष्ट अपूर्व
प्रवचनोनो सार.
कहे छे के ‘आत्मा अनंत धर्मोवाळुं एक द्रव्य छे, अने अनंत नयात्मक
श्रुतज्ञान–प्रमाणपूर्वक स्वानुभव वडे ते जणाय छे.’ आवा आत्मद्रव्यनुं ४७
नयोथी वर्णन कर्युं छे; तेमांथी १४ मा द्रव्यनय उपरनुं विवेचन चाले छे.
ज्ञानमां अने रुचिमां न आवे त्यां सुधी ते भवभ्रमण टळे नहि. आत्मज्ञान वगर अनंतवार बाह्य त्यागी के
पंडित थईने पण जीव भवमां रझळ्यो; शास्त्र पण अनंतवार भण्यो, पण आत्माने न जाण्यो; पोताना
आत्मानो जेवो स्वभाव छे तेने जाण्या विना पर सन्मुख रहीने ज बधुंय कर्युं छे, पोताना आत्मस्वभावनी
अंतरसन्मुख थईने तेनी रुचि–प्रतीति कदी करी नथी. जो आत्मस्वभावनी रुचि–प्रतीति करे तो आ भवभ्रमण
रहे नहि. जेने भवभ्रमणनो त्रास लाग्यो छे अने आत्माने समजीने भवभ्रमणथी छूटवा मागे छे एवा जिज्ञासु
जीवने अहीं आचार्यदेव आत्मानुं स्वरूप समजावे छे.
तेनो स्वभाव छे. भूत–भविष्यनी पर्यायोने जाणी लेवानी ताकात ज्ञानमां ज छे, ईंद्रियोमां के रागमां एवी
ताकात नथी. जुओ, ज्ञाननी केटली मोटाई छे! ते भविष्यनी सिद्ध पर्यायपणे आत्माने वर्तमानमां जाणी ल्ये
छे. आत्मामां अनंता गुण–पर्यायो छे ते बधायने ज्ञान जाणी ल्ये एवी तेनामां ताकात छे. त्रण काळना
पर्यायोपणे थनारुं मारुं द्रव्य छे–एम ज्यां जाणे त्यां ज्ञान द्रव्यस्वभावनी सन्मुख थईने, विकल्प तूटीने
वीतरागता ने केवळज्ञान थया विना रहे नहि. द्रव्यसन्मुख द्रष्टि थतां ज वर्तमानपर्यायमां अंशे शुद्धतारूप भाव
थयो एटले के भूत–भविष्यनी पर्यायपणे द्रव्यने जाणनार जीवने वर्तमान पर्यायमां निर्मळता प्रगटेली छे;
वर्तमान पर्यायमां अंशे निर्मळता सहित भूत–भविष्यनी पर्यायपणे द्रव्यने जाणे–एवो आ द्रव्यनय छे.
परंतु केवळज्ञान प्रगटवानो धर्म तेनामां नथी. अभव्यमां केवळज्ञाननी शक्तिरूप स्वभाव छे, पण तेने