Atmadharma magazine - Ank 104
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १प४ः आत्मधर्मः १०४
नथी एटले ‘वर्तमान पर्यायमां द्रव्य उल्लसे छे’ एम तेने प्रतिभासतुं नथी, तेथी तेने भावनय होतो नथी.
द्रव्य पोते पर्यायपणे उल्लसे छे–एम जेने भासे ते बहारना आश्रये पर्यायनी निर्मळता थवानुं माने नहि. मारी
वर्तमान पर्यायमां मारुं द्रव्य उल्लसे छे एम जेने प्रतिभास्युं तेने द्रव्यसन्मुख द्रष्टि गई ने सम्यग्ज्ञान थयुं अने
तेने भावनय लागु पडयो; आ सिवाय भावनय होतो नथी केम के भावनय ते सम्यग्ज्ञाननो अंश छे.
सर्वज्ञभगवाने अनंत धर्मोवाळो आत्मा प्रत्यक्ष जोयो छे, तेवो ज अनंतधर्मोवाळो आत्मा साधकने
श्रुतज्ञानप्रमाणथी परोक्ष ख्यालमां आवे छे, तेमां अंशे स्वसंवेदनप्रत्यक्ष पण छे. श्रुतज्ञानमां अनंत नयो समाय
छे; एवा श्रुतज्ञानने स्वसन्मुख करीने, जेवो सर्वज्ञे जोयो तेवो आत्मा पोताना ख्यालमां आव्या विना ज्ञान
सम्यक् प्रमाण थाय नहि, तेथी अहीं आचार्यदेवे आत्मानी यथार्थ ओळखाण करावी छे.
अहीं ४७ नयोथी आत्मस्वभावनुं वर्णन कर्युं छे, तेमांथी १प मा नय उपरनुं विवेचन पूरुं थयुं. छेल्ले
नाम–स्थापना–द्रव्य अने भाव ए चार नयोथी आत्मानुं वर्णन कर्युं. हवे सामान्यनय अने विशेषनयथी
आत्मानुं वर्णन करे छे.
(१६) सामान्यनये आत्मानुं वर्णन
आत्मद्रव्य सामान्यनये, हार–माळा–कंठीना दोरानी माफक, व्यापक छे; जेम मोतीनी माळानो दोरो सर्व
मोतीमां व्यापे छे तेम आत्मा सामान्यनये सर्व पर्यायोमां व्यापे छे.
भावनयथी आत्मा वर्तमान पर्यायपणे प्रतिभासे छे एटले के वर्तमान एक पर्यायमां व्यापेलो
प्रतिभासे छे–एम कह्युं, अने अहीं कहे छे के सामान्यनयथी आत्मा बधी पर्यायोमां व्यापक एक द्रव्यपणे देखाय
छे. आ सामान्यनय एम बतावे छे के हे जीव! तारी पर्यायमां सदाय तुं ज व्यापक छो, तारी पर्यायमां कोई
बीजो आवतो नथी; एटले तारी पर्याय प्रगटवा माटे तारे कोई पर सामे जोवानुं रहेतुं नथी, पण तारा द्रव्यनी
सामे ज जोवानुं रहे छे.
जे पोतानी पर्यायमां कदी व्यापक नथी एवा परद्रव्य उपर द्रष्टि राखतां निर्मळ पर्याय प्रगटती नथी,
पण जे पोतानी समस्त पर्यायोमां व्यापक छे एवा स्वद्रव्य उपर द्रष्टि करतां तेना आश्रये निर्मळ पर्याय प्रगटे
छे, ते धर्म छे. आ सिवाय निर्दोष आहारना कारणे धर्म थाय एम जेणे मान्युं तेणे पोतानी धर्म–पर्यायमां
आत्माने व्यापक न मान्यो पण अचेतन आहारने पोतानी पर्यायमां व्यापक मान्यो; पण आहार तो परद्रव्य
छे, ते पोतानी पर्यायमां व्यापतुं नथी तो तेना कारणे धर्म केम थाय? पोतानी पर्यायमां पोतानो आत्मा व्यापक
छे ते ज धर्मनुं कारण छे.
देव–गुरु–शास्त्र पण आ आत्मानी पर्यायमां व्यापता नथी; तेथी ते देव–गुरु–शास्त्रनी भक्तिनो भाव
के दुःखी जीवोनी सेवा वगेरेनो भाव ते पुण्यभाव छे, पण ते धर्मनी क्रिया नथी. धर्मनी क्रिया कई?–के अनंत
धर्मने धरनार एवा निज आत्माने प्रथम श्रद्धा–ज्ञानमां नक्की करवो ने पछी तेमां एकाग्र थवुं ते धर्मनी क्रिया
छे. धर्मी एवो जे आत्मा तेना आधारे ज धर्मनी क्रिया थाय छे, आत्मा सिवाय परना आधारे धर्मनी क्रिया
थती नथी.
पहेलां द्रव्यनयथी आत्माने चैतन्यमात्र कहीने अभेदपणुं बताव्युं; अने अहीं सामान्यनयथी आत्मानुं
समस्त पर्यायोमां व्यापकपणुं कहीने सामान्यपणुं बतावे छे; आ बधा एकेक धर्म छे अने ते एकेक नयनो विषय
छे. सर्व गुण–पर्यायोमां आत्मद्रव्य ज एकरूपे व्यापक छे एटले ते सामान्य छे.–आम सामान्य धर्मथी द्रव्यने
जाणवुं ते सामान्यनय छे.
दरेक धर्मना वर्णनमां आचार्यदेवे द्रष्टांत आपीने समजाव्युं छे; अहीं मोतीनी माळानुं द्रष्टांत छे. जेम
माळा तेना बधा मोतीमां व्यापेली छे, माळानो दोरो अमुक मोतीमां होय ने अमुक मोतीमां न होय–एम नथी,
बधा मोतीमां माळानो दोरो सळंग छे; वळी ते माळानुं दरेक मोती क्रमसर गोठवायेलुं छे, ते आडुंअवळुं थतुं
नथी. तेम आत्मद्रव्य तेनी अनादि अनंतकाळनी बधी पर्यायोमां व्यापेलुं छे, कोई पण पर्याय आत्मद्रव्य
वगरनी होती नथी; तेम ज ते बधी पर्यायो क्रमसर छे, कोई पर्याय आडीअवळी थती नथी. आ