रीते द्रव्यनो एवो व्यापकधर्म छे के पोताना समस्त पर्यायोमां ते व्यापे छे.
द्रव्यनये जोतां भूत–भावीपर्यायपणे द्रव्य प्रतिभासे छे;
अने सामान्यनये जोतां त्रणकाळना पर्यायोमां व्यापकपणे द्रव्य प्रतिभासे छे.–आनो अर्थ ज ए थयो के
पर्याय आघी पाछी थती नथी. जो भविष्यनी पर्यायनो क्रम द्रव्यमां निश्चित न होय तो भाविपर्यायपणे द्रव्य
प्रतिभासी शके ज नहि. जेम मोतीनी माळामां मोतीनो क्रम आघोपाछो थतो नथी, तेम त्रणकाळनी
पर्यायमाळामां व्यापक एवा द्रव्यमां कोई पर्यायनो क्रम आघोपाछो थतो नथी; अने परने लीधे कोई पर्याय थती
नथी ए वात पण आमां आवी ज गई. द्रव्यनी पर्यायो तेना स्वअवसरे ज थाय छे, आगळ–पाछळ थती
नथी–ए वात ९९ मी गाथाना प्रवचनोमां विशेष विस्तारथी आवी गई छे.
निजधर्मोमां व्यापे छे एटले पर सामे जोवानुं न रह्युं पण वस्तुनी सामे ज जोवानुं रह्युं.
व्यापे! आथी आ व्यापक–धर्मने स्वीकारवा जतां द्रव्य उपर ज द्रष्टि जाय छे. आत्मद्रव्यमां ज एवो धर्म छे के
सर्व पर्यायोमां ते व्यापे छे. पर्याय ते ते काळे द्रव्यमां तन्मय थईने व्यापे छे अने द्रव्य पोतानी बधी पर्यायोमां
व्यापे छे; एटले कोई निमित्त उपर, विकल्प उपर के पर्याय उपर मुख्यपणे जोवानुं न रह्युं, पण द्रव्य उपर ज
जोवानुं रह्युं. अनादिथी जीवनी द्रष्टि ज पोताना द्रव्य उपर पडी नथी, पण संयोग अने विकारमां ज द्रष्टि राखी
छे. सामान्यनये सर्व पर्यायोमां व्यापक एवा आत्मद्रव्यने जे जाणे तेने निर्मळ पर्याय थया विना रहे नहि.
एकेक धर्म एवो छे के तेने यथार्थपणे नक्की करवा जतां आखुं द्रव्य ज नक्की थई जाय छे. बधा धर्मोनो आधार
तो आत्मद्रव्य छे, तेथी ते धर्मोने जोतां धर्मी एवुं आत्मद्रव्य ज प्रतीतमां आवी जाय छे ने तेना आश्रये
सम्यग्दर्शनादि धर्म प्रगटे छे.
उत्तरः–हा; विकारपर्यायमां पण ते समयपूरतो आत्मा व्यापक छे;–पण आम जेणे नक्की कर्युं तेने
थतो नथी एटले के तेमां कर्म व्यापक नथी, ते विकारपर्यायमां पण आत्मद्रव्य ज व्यापक छे’ आम जेणे नक्की
कर्युं तेने विकार वखते पण द्रव्यनी प्रतीति खसती नथी, एटले ‘पर्यायमां द्रव्य व्यापक छे’ एम नक्की करनारने
एकला विकारमां ज व्यापकपणुं रहेतुं नथी पण सम्यक्त्वादि निर्मळपर्यायमां व्यापकपणुं होय छे, अने तेने ज
आवो सामान्यनय होय छे.
विशेषनये आत्मा अव्यापक छे.
तो तेने धर्मी एवो अखंड आत्मा प्रतीतमां