होय ते राजा थई जाय छे.
के निर्धनता बंने वखते धर्मीने पोताना भिन्न ज्ञानानंदस्वभावनुं भान छे एटले तेने संयोगमां एकत्वबुद्धि
थती नथी, ने स्वभावने चूकीने राग–द्वेष थता नथी.
आत्मानुं स्वरूप नथी; सधनता वखते ‘आ सधनता छे’ एम जाणे अने निर्धनता वखते ‘निर्धनपणुं छे’
एम जाणे, ते ज्ञाननो पोतानो काळ छे, ते ज्ञान परने लीधे के राग–द्वेषने लीधे थयुं नथी, अने ते ज्ञानना
अंश जेटलो ज आत्मानो स्वभाव नथी, आत्मा अखंड ज्ञानस्वभावी छे.–आम जाणे तो अंदर बधुं
समाधान थई जाय. सधनता वगेरे संयोगमां, राग–द्वेषमां के ते वखतना ज्ञानना अंशमां ज धर्मीने ‘हुं’
पणुं वेदातुं नथी पण अखंड चिदानंद तत्त्वमां ज हुं पणुं वेदाय छे, अखंड द्रव्य उपर ज तेनी द्रष्टि पडी छे.
संयोग अने बीजी तरफ स्वभाव, बंने एक समये छे, त्यां द्रष्टि कोना उपर पडी छे तेना उपर धर्म–अधर्मनो
आधार छे. बहारमां निर्धनता थई, अणगमानो भाव थयो अने ज्ञानमां ते जणायुं, त्यां अज्ञानी तेटलाने
ज देखे छे पण ते वखते संयोग अने रागथी रहित पोताना परिपूर्ण ज्ञानानंदस्वभावने ते देखतो नथी.
अरे भाई! तुं निर्धन नथी, राग जेटलो नथी, पर्याय जेटलो पण तुं नथी, तुं तो ज्ञान अने आनंदथी
परिपूर्ण छो, तारामां त्रिकाळ ज्ञानशक्तिनो एवो अखूट भंडार भर्यो छे के केवळज्ञानपर्याय प्रगटवा छतां ते
खूटे नहि; आवा स्वभाव सामर्थ्यनो विश्वास करीने तेमां एकाग्र था तो केवळज्ञानना निधान प्रगटे. अहो!
दरेक आत्मा अंदर परमात्मशक्तिथी परिपूर्ण छे, पण जीवो अंतर्मुख वळता नथी तेथी ज संसारमां रखडी
रह्या छे. धर्मी जीवे पोते तो पोताना स्वभावमां अंतर्मुख थईने पोतानुं संसारभ्रमण टाळ्युं छे, तेने आवी
संसार अनुप्रेक्षा होय छे.
सोनगढमां श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी तत्त्वज्ञानना अभ्यास माटे
एक जैनदर्शन शिक्षणवर्ग खोलवामां आवशे. खास करीने प्रौढ उंमरना
भाईओ माटे आ वर्ग खोलवामां आव्यो छे. जे जैन मुमुक्षुभाईओने वर्गमां
अभ्यास करवानी ईच्छा होय तेमणे नीचेना सरनामे सूचना मोकली देवी, अने
वखतसर आवी जवुं. (आ वखते वर्गमां पूर्वे चाली गयेला अभ्यास उपरांत
नवो अभ्यास कराववामां आवशे. वर्गमां आवनारे बेडींग अने लोटो साथे
लाववा)