ने कोई जीव नथी बांधता. कोई जीव क्षायिक सम्यग्दर्शनवाळो होय छतां तेने तीर्थंकरनामकर्म नथी बंधातुं ने
कोई जीव क्षयोपशम समकितवाळो होय छतां तेने तीर्थंकरनामकर्म बंधाय छे,–तेनुं कारण? ते ते पर्याय सत् छे,
ते ज कारण छे, बीजुं कोई कारण नथी, एटले ‘आम केम’ एवो प्रश्न रहेतो नथी. वस्तु सत्स्वरूप छे. द्रव्य
सत्, गुण सत् ने पर्याय पण सत्–एम सत्नी प्रतीत कर तो ‘आम केम’ एवो प्रश्न नहि रहे पण तारा
ज्ञानस्वभावनी प्रतीत थईने वीतरागता प्रगटशे.
तेना फळमां संयोग मळे ते पण भिन्न भिन्न प्रकारनो छे, कोईने समवसरणादिनो संयोग होय छे. संसारनी
आवी विचित्रता जेने बेसे तेने पर्यायनी विचित्रता देखीने संदेह थतो नथी. संसारअनुप्रेक्षानी पप मी
गाथामां स्वामीकार्तिकेय मुनिराज कहे छे के अहो! जगतमां संसारनी चारे गतिमां अनेक प्रकारना दुःखो
सहन करवा छतां जीव सद्धर्ममां बुद्धि करतो नथी. आ सामान्य जीवोनी वात छे. धर्मीने तो सद्धर्मनी
बुद्धि छे. ‘सत्’ एवो जे पोतानो ज्ञानस्वभाव, तेनुं जेने अंतरमां भान छे तेने संयोग–वियोग देखीने
तेमां पर्यायबुद्धि थती नथी; ‘आम केम’ एवो प्रश्न थतो नथी, केम के पदार्थ सत् छे एटले तेनी पर्यायनी
योग्यता प्रमाणे ज संयोग–वियोग होय. स्वभावनी द्रष्टिपूर्वक आवी भावना भाववाथी वैराग्यनी वृद्धि
थईने धर्मी जीवने अंतरमां एकाग्रता वधती जाय छे ने सहज आनंद वधतो जाय छे, तेथी आ भावनाओ
भव्य जीवोने आनंदनी जननी छे. अहो! आ भावनाओ भाववा जेवी छे. जीवोए विषय–कषायनी
भावना अनादिकाळथी भावी छे, पण अंतरमां वस्तुना भानसहित आवी वैराग्यभावना कदी भावी नथी.
आ शास्त्रमां छेल्ले स्वामी कार्तिकेय मुनिराज कहेशे के जिनवचननी भावना माटे आ भावनाओनी रचना
करी छे. पहेलां ‘जिनवचन’ कोने कहेवाय ते नक्की करवुं जोईए. जिनवचनमां कहेलां द्रव्य–गुण–पर्याय ए
त्रणेनुं स्वरूप जेम छे तेम समजीने अने प्रतीत करीने धर्मी जीव आ भावनाओ भावे छे, तेमां तेने
वीतरागी श्रद्धा, वीतरागी ज्ञान अने वीतरागी आनंदनो अंश प्रगट छे. बार भावनाओनुं चिंतवन ते
ज्ञान–वैराग्यनी वृद्धिनुं कारण छे. बार भावना भावनारनी लायकात केटली? के जेने वस्तुस्वरूपनुं यथार्थ
भान होय ते ज खरेखर बार भावनाओ भावी शके. सम्यग्दर्शन वगर आ बार भावना यथार्थ होती नथी.
‘जिनवचननी भावना अर्थे’ आ भावना रची छे एटले जेने जिनवचन अनुसार वस्तुस्वरूपनुं भान होय
तेने ज आ बार भावना होय. जिनवचनथी विरुद्ध कहेनारा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने जे मानतो होय तेने
बार भावनानुं चिंतवन साचुं होय नहि.
क्षणक्षणनो विधविध राग अने संयोग, तथा तेने जाणनारुं ज्ञान ए बधा स्वतंत्र छे, तेम ज ते क्षणे
ध्रुवस्वभाव पण स्वतंत्र छे–एम बधाने जाणीने धर्मी जीव धु्रवस्वभावने आदरे छे, तेनी रुचि करीने तेमां
एकाग्रता करे छे.
थईने राग थयो छे एवा धु्रव चिदानंद स्वभावने स्वीकारता नथी, अंतर्मुख थईने पोताना धु्रवस्वभावने
देखता नथी; त्रिकाळी परम तत्त्वने चूकीने मात्र वर्तमान पर्यायने अने बाह्य संयोगने ज स्वीकारे छे, तेथी
संसारमां परिभ्रमण करी रह्या छे.–आम धर्मी जीव संसारभावना चिंतवे छे. आ भावना भावनारने पोताने
तो चिदानंदस्वभावनुं भान छे, ने पर्यायबुद्धि छूटी गई छे, एटले तेने हवे आवा संसारमां परिभ्रमण थवानुं
नथी.